अकुला रही सारी मही
किसको पुकारना है सही ।
सोच रही अब वसुंधरा
कैसा कलुषित समय पड़ा
बालक बूढ़े नौजवान
गिरिवर तरुवर आसमान
किसको पुकारना .........
अखंड भारत का सपना
देखा था ये अपना
खंडित हो कर बिखर रहा
न जन मानस को अखर रहा
अकुला रही .................
ढूँढने पर भी अब मिलते नहीं
राम कृष्ण से पुरुषोत्तम कहीं
गदाधर भीम अर्जुन धनु सायक नहीं
गांधी सुभाष भगत से नायक नहीं
अकुला रही .............
रण बांकुरों से वसुंधरा
हर युग मे अल्हादित रही
किन्तु अहो ! क्या कोई
बचा अब बांका लाल नहीं
अकुला रही सारी मही
किसको पुकारना ............
अप्रकाशित एवं मौलिक
( संशोधित रचना )
Comment
आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी , अरुण जी , राम शिरोमणि जी एवं प्रिय वंदना आप सभी का हार्दिक आभार ।
धरती का दर्द ..जो आपने महसूस किया .बिलकुल सही है ..आपको ढेरों बधाई
आदरणीया अन्नपूर्णा जी नमस्ते।
मही की व्यथा को अभियक्ति देने के लिए आपको बधाई।
रचना महत्वपूर्ण कथ्य से सजी है।
सादर
आदरणीया अन्नपूर्णा जी , बहुत सुन्दर रचना........हार्दिक बधाई.
बहुत ही सुन्दर रचना आदरणीया अन्नपूर्णा जी बधाई स्वीकारें
आ0 मीना जी , आ0 भण्डारी जी , आ0 कुंती दीदी , आ0 डॉ गोपाल नारायण जी आप सभी के लिए हार्दिक आभार ।
अन्नपूर्णा जी i
धरती माँ की इस व्यथा का हरण करने वाला तो कोई नज़र नहीं आता i
किसी अवतार की ही प्रतीक्षा करनी होगी पर तब तक हम -------=
मधुर भावाभिव्यक्ति के लिए सुभकामनाये i
बहुत सुंदर रचनाअन्नपूर्णा जी.हार्दिक बधाई.
आदरणीया अन्नपूर्णा जी , बहुत सुन्दर भाव , बहुत सुन्दर रचना के लिये आपको बधाई !!!!!!
बहुत सुन्दर रचना आ० अन्नपूर्णा जी , बधाई आप को
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