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ग़ज़ल- सारथी || जुल्फ़ के पेंचों में ||

जुल्फ़ के पेंचों में कमसिन शोख़ियों में

मुब्तला हूँ  हुस्न की रानाइयों  में/१ 

आसमां के चाँद की अब क्या जरूरत

चाँद रहता है नजर की खिड़कियों में/२ 

दिल पे भरी पड़ती है दोनों ही सूरत

हो कहीं वो दूर या नजदीकियों में/३ 

सोचता हूँ अब उसे माँ से मिला दूँ

छुप के बैठी है जो कब से चिठ्ठियों में/४ 

वो अदाएं दिलवराना क़ातिलाना

अब कहाँ वो रंग यारों तितलियों में/५ 

है सुकूं कितना,बताउं कैसे तुमको

यार इज्जत की, कमाई रोटियों में/६ 

चार मिसरों से कहो कांधे पे अपने

ले चलें हमको सुखन की वादियों में/७ 

..................................................

अरकान : २१२२ २१२२ २१२२ 

सर्वथा मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by Saarthi Baidyanath on January 5, 2014 at 11:06pm

जनाब  Ayub Khan "BismiL" साहिब ...जर्रा नवाजी का बेहद शुक्रिया ! आप आये ...नाचीज को हौसला मिल गया ..! बहुत बहुत शुक्रिया ...सिखलाते रहिएगा ....सादर :)

Comment by Ayub Khan "BismiL" on January 5, 2014 at 8:41pm

सोचता हूँ आज, माँ से ही मिला दूँ 
कब से डरकर, वो छुपी हैं चिठ्ठियों में .............kya kehne bahut Umdaaa Baidya nath sahab 

Comment by annapurna bajpai on January 5, 2014 at 7:53pm

सुंदर गजल , बधाई आपको । 

Comment by Saarthi Baidyanath on January 5, 2014 at 1:41pm

मान्यवर गिरिराज भंडारी जी ...सादर प्रणाम ! बहुत बहुत उपकार आपका जो इस तरफ ध्यान दिला दिया आपने !आप अक्षरशः सही फरमा रहे हैं! महानुभाव  ..भूलवश ..चूक कर गया हूँ मतले में ! अभी सही कर देता हूँ ...सादर :)


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 5, 2014 at 10:13am

आदरणीय वैद्य नाथ भाई , गज़ल बहुत शान्दार कही है , आपको  हार्दिक बधाइयाँ ॥

है सुकूं कितना, बताउं कैसे तुमको 

यार इज्जत की, कमाई रोटियों में - लाजवाब शे र !! ढेरों बधाइयाँ ॥

आदरणीय - मतले के हिसाब से क्या आपने काफिया ,ख़ियों   मे नही तय करलिया है ?    शोख़ियों   और गुस्ताखियों   को लेकर , ज़रा सोच के देख लीजियेगा , मुझे ऐसा लग रहा है ॥ या फिर खियों -  कही तहलीली रदीफ न हो जाये और गज़ल बिना काफिया रह जाये । जानकार गुणी जनों की सलाह जरूरी है ॥

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