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ग़ज़ल- अब राजनीति सबकी रगों में समा गई

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अब राजनीति सबकी रगों में समा गई

विश्वास खो गया,तो कंही आस्था गई ।।

मैं देखता हूँ मेरे नगर में ये क्या हुआ, 

लडकी खुशी-खुशी से ही इज्जत लुटा गई।

हर मोड पर जो शहर के आवारगी खडी, 

मैं क्या करूँ बजुर्गों की चिन्ता बढा गई।

बादल न जाने किसके हवन पर गया कंही,

रूठी  हुई  सी  तन्हा  अकेली  हवा गई।

महफिल में ही किसी ने मेरी बात छेड दी,

सुनते ही इतना रूप की गागर लजा गई।

मैं इन्तजार में खडा था रेलगाडी की,

पागल हवा अकेली थी,नज़रें लडा गई।  

यह ग़ज़ल- मौलिक व अप्रकाशित है।

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 15, 2014 at 9:10pm

आदरणीय सूबे सिह भाई जी , बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है , हार्दिक  बधाई ॥

Comment by gumnaam pithoragarhi on January 15, 2014 at 6:46pm

मैं देखता हूँ मेरे नगर में ये क्या हुआ,

लडकी खुशी-खुशी से ही इज्जत लुटा गई।

वाह अच्छी ग़ज़ल ,,,,,,,,,,,,,,,, बधाई ,

Comment by coontee mukerji on January 15, 2014 at 5:28pm

मैं इन्तजार में खडा था रेलगाडी की,

पागल हवा अकेली थी,नज़रें लडा गई।  .....आँख लड़ाने का क्या अंदाज़ है....एक्सीडेंट हो जाए क्या आश्चर्य


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 15, 2014 at 3:29pm

आदरणीय सुजान भाई, अच्छी ग़ज़ल हुई है,

हर मोड पर जो शहर के आवारगी खडी, 

मैं क्या करूँ बजुर्गों की चिन्ता बढा गई।

बहुत खूब, बधाई स्वीकार करें |

Comment by Meena Pathak on January 15, 2014 at 2:33pm

महफिल में ही किसी ने मेरी बात छेड दी,

सुनते ही इतना रूप की गागर लजा गई।

मैं इन्तजार में खडा था रेलगाडी की,

पागल हवा अकेली थी,नज़रें लडा गई।  ............क्या बात है ... बहुत खूब 

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