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हमारी प्यास ले जाओ, जरा सूरज घटाओं तक
समय इतना नहीं बाकी, खबर भेजें हवाओं तक
तुम्हारी कोशिशें थी नित, यहाँ केवल दवाओं तक
हमारा भाग भा खोटा, न जा पाया दुआओं तक
कहाँ से भेजता रब भी, मदद को रहमतें अपनी
पहुचनें ही न पायी जब, सदा मेरी खलाओं तक
कहो तुम चाँद से इतना, सितारों रोशनी मकसद
रहा मत कर सदा इतना, सिमटकर तूँ कलाओं तक
सुना है हो गये हो अब, खुदा तुम भी मुहब्बत के
हमारी हद सहन तक ही, तुम्हारी हद सजाओं तक
खड़ा है वट बिजन में अब, सताता है अकेलापन
पठाओ ये खबर झटपट, खफा बैठी लताओं तक
‘मुसाफिर’ हो सरल जाता, सफर सच में मुहब्बत का
बढ़ा लेते अगर तुम भी , कदम कुछ इन वफाओं तक
मौलिक और अप्रकाशित
23.01.2014
Comment
आदरणीय मोहिनी बहन , ग़ज़ल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद . आप लोगों का स्नेह और मार्गदर्शन ही कुछ सीखने और आगे बढ़ने का अवसर देगा .
हमारी हद सहन तक ही तुम्हारी हद सजाओं तक ....अन्तिम दो पंक्तियाँ भी ..प्रशंसनीय रचना | बधाई आपको लक्ष्मण धामी जी .
आदरणीय अखिलेश जी , प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .
भाग भा कि जगह भाग था पढ़ें गलती से टंकण कि त्रुटि रह गयी
आदरणीय लक्ष्मण भाई,
मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।पर ' भाग भा ' का अर्थ समझ नहीं पाया ? ... सादर
आदरणीय भाई अरुण शर्मा जी ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद. आप जैसे प्रबुद्ध जनों का मार्गदर्शन मिलता रहे यही आकांक्षा है . पुनः हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सभी अशआर अच्छे बने हुए है सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीय भाई गिरिराज जी . ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .मैं आपसे जानना चाहूना की क्या कलापक्ष ठीक है
आदरणीय सरिता बहन ग़ज़ल की प्रशंसा क्र उत्साह वर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .
आदरणीय अरुण भाई ग़ज़ल की सराहना के लिए आभार .
आदरणीय लक्ष्मण भाई , लाज्वाब ग़ज़ल कही है , आदरणीय हार्दिक बधाई स्वीकार करें ॥
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