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दीप को जलना नहीं है भूल से भी द्वार मेरे
आप नाहक कोशिशें क्यों कर रहे हो यार मेरे
खून हाथों पर लगा है किन्तु कातिल मैं नहीं हूँ
फूल से अठखेलियों में चुभ गये थे खार मेरे
छा गया है आजकल जो इस मुहब्बत में कुहासा
क्या बताऊँ आपको मैं देवता बीमार मेरे
दीन में रखना मुझे क्यों आप फिर भी चाहते हो
मयकदे में भेज बदले जब सदा आचार मेरे
ये जरूरी तो नहीं है सिर्फ सूरत आइना हो
आपको लगते बुरे क्यों हर समय आसार मेरे
बिन मरे ही सच बनूंगा मैं मुहब्बत का खुदा भी
अब ‘मुसाफिर’ कमसिनों से जुड़ गये हैं तार मेरे
किसलिए महफिल तुम्हारी छा गयी खामोशियाँ यूं
क्या दिलों में आपके भी चुभ गये असआर मेरे
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
भाई पाठक जी ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए आभार .
भाई बृजेश जी , प्रशंसा के लिए धन्यवाद .
बहुत प्यारी ग़ज़ल लगी मुझे। हार्दिक बधाई आपको आदरणीय
अच्छी ग़ज़ल है! आपको हार्दिक बधाई!
आदरणीय भाई गिरिराज जी , आपने सही फ़रमाया l हो कि जगह हैं अधिक उपयुक्त लग रहा है .सुधार कर लूगा .अशआर में टंकण कि त्रुटि कि और ध्यान दिलाने के लिए हार्दिक धन्यवाद . ग़ज़ल आपको भा गयी .रचना कर्म सार्थक होता लग रहा है l आभार .
आदरणीय लक्ष्मण भाई , ग़ज़ल खूब सूरत कही है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥ बस कई मिसरों मे आप के साथ हो लिखा है आपने जैसे - दीन में रखना मुझे क्यों आप फिर भी चाहते हो, मुझे लगता है , दीन में रखना मुझे क्यों आप फिर भी चाहते हैं , कहना शायद ज्यादा सही हो ।एक बार सोच लीजियेगा ॥
किसलिए महफिल तुम्हारी छा गयी खामोशियाँ यूं
क्या दिलों में आपके भी चुभ गये असआर मेरे - ये शे र बहुत पसन्द आया भाई जी , बधाई ॥ असआर को अशआर कर लीजियेगा ॥
आदरणीया कुंती बहन , ग़ज़ल कि प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .
ये जरूरी तो नहीं है सिर्फ सूरत आइना हो
आपको लगते बुरे क्यों हर समय आसार मेरे.....बहुत सुंदर
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