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मुहब्बत की नहीं उससे , वफा भी फिर निभाता क्या
खबर थी ये उसे भी जब , मुझे तोहमत लगाता क्या
सपन में रात भर था जो , उसे भी ले गया सूरज
मिला साथी मुझे भी है , जमाने फिर बताता क्या
जिसे डर हो सजाओं का, उसे यारों सताता डर
हुए पैदा सलीबों पर , बता डरता डराता क्या
न हो तू अब खफा ऐसे , रहा है भाग बंजारा
न था कोई ठिकाना जब, पता तुझको लिखाता क्या
पला है झूठ की कोखों, चला छल का पकड़ दामन
जमीरों की सदा झूठी, हमें तब सच सुनाता क्या
मुहब्बत का मजा सुनते, मनाने रूठने में है
कभी रूठी नहीं कमसिन, ‘मुसाफिर’ तब मनाता क्या
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर
Comment
बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है
सभी अशआर ठहर जाने को मजबूर कर रहे हैं...बहुत उम्दा
हर एक शेर पर हार्दिक बधाई आ० लक्ष्मण धामी जी
आदरणीय सौरभ भाई आपने वजह फ़रमाया .दरअसल जल्दबाजी में मैं पूरी पंक्ति पर गौर नहीं कर पाया था .मार्गदर्शन के लिए आभार . सुझाव देते रहिएगा . धन्यवाद .
मेरे कहे को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवादभाईजी.
उक्त शेर को यों दुरुस्त हुआ देख रहा हूँ -
जिसे डर हो सजाओं का उसे यारो सताता डर .... ... यारो होगा यारों नहीं
हुआ पैदा सलीबों पर कहो डरता डराता क्या
आदरणीय सौरभ भाई , ग़ज़ल कि प्रसंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .आपका सुझाव उत्तम है , धन्यवाद
आपकी ग़ज़ल ने बहुत बहुत आश्वस्त किया है भाई लक्ष्मण मुसाफ़िर जी.
मैं दिल से दाद दे रहा हूँ.
’डरता-डराता’ क्या करने से और मज़ा आये. देखियेगा.
फिर कहूँगा, एक सार्थक और आशान्वित करती हुई सी कोशिश हुई है.
आदरणीया मीना जी , ग़ज़ल कि प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .
सुन्दर गज़ल ...बधाई
आदरणीय भाई गिरिराज जी , आपकी प्रतिक्रिया से लगा है कि मेरे लेखन में सुधार हुआ है .यह सब आप सहित ओ बी ओ परिवार के अनेक सदस्यों के मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन का ही परिणाम है . बस इसी तरह मार्ग दर्शन करते रहिये और कमियों से अवगत करते रहें यही कामना है . हार्दिक आभार .
आदरणीय मनोज भाई आपको ग़ज़ल पसंद आई .आपकी प्रसंसा पाकर मन प्रसन्न हुआ .आप जैसे भाइयो का स्नेह ही कुछ बेहतर लिखने का प्रयास करने को प्रेरित करता है . आसा है बाविशी में भी अपनी रे देकर और बेहतर करने कि प्रेरणा देंगे .
आदरनीय लक्ष्मण भाई , बहुत लाजवाब ग़ज़ल कही है , सभी अशाअर बेहतरीन हैं , आपको बहुत बहुत बधाइयाँ ॥
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