उमा-उमा मन की पुलकन है
शिव का दृढ़ विश्वास
मिले अब !
सूक्ष्म तरंगों में
सिहरन की
धार निराली प्राणपगी है
शैलसुता तब
क्लिष्ट मौन थी
आज भाव से
आर्द्र लगी है
हल्दी-कुंकुम-अक्षत-रोरी
तन छू लें
अहिवात निभे अब !!
तत्सम शब्द भले लगते थे
अब हर देसज
भाव मोहता
मौन उपटता
धान हुआ तो
अंग-छुआ बर्ताव सोहता
मंत्र-गान से
अभिसिंचित कर.. !
सृजन-भाव सत्कार लगे अब !!
जब काया ने
सृष्टि-चितेरा
हो जाना
स्वीकार किया है
उत्सवधर्मी परंपराओं
का शाश्वत व्यवहार
जिया है
कुसुम-रंग-अनुभाव प्रखर हैं
शिव-गण का
उत्पात रुचे अब !!
**************
-सौरभ
**************
(मौलिक और अप्रकशित)
शैलसुता - उमा का एक रूप ; अहिवात - सुहाग ; अनभाव - गुण
Comment
आदरणीय Saurabh Pandey जी : क्षमा चाहता हूँ की आपको मेरी टिपण्णी से खेद हुआ , परन्तु जिस भावर्थ को ब्र्जिएश जी ने पर्स्तुत किया है वो तो मैंने आंशिक तौर पर समझा पर मैं इस रचना में कुछ और ही दिशा और में खोज रहा था | मुझे अफ़सोस है की मेरी दिशा सही नहीं थी | ह्रदय से आभार ...... मुझे मेरी त्रुटी पूर्ण दिशा पर इस नेह भरी डांट के लिए
भाई वीनसजी, आपकी सारगर्भित टिप्पणी और मनोभावों पर आपकी संवेदनशील पकड़ मुझे एक रचनाकार के तौर पर संतुष्ट कर रही है
रचना की सूक्ष्मता को साझा करने के लिए हार्दिक धन्यवाद.
भाई बृजेशजी, आपने जिस गंभीरता से प्रस्तुत रचना की व्याख्या की है वह अन्य सामान्य पाठकों के विस्मयादिबोधक शब्दों वाली टिप्पणियों से कई करोड़ गुना सार्थक प्रयास है.
आपने सही कहा है कि किसी रचना के या रचनाकार के प्रयुक्त शब्द गूढ़ नहीं होते बल्कि क्लिष्ट हमारा चलताऊ व्यवहार और हमारी बिखरी सोच ही हुआ करती हैं.
आपके इस सहयोग का मैं आभारी हूँ.
शुभ-शुभ
आदरणीया कुन्तीजी,
प्रस्तुत रचना के भावार्थ को जान लेने के बाद आपने जिस तरह से टिप्पणी किया है, वह मुझे एक रचनाकार के तौर पर भी संतुष्ट कर रहा है.
अब आप स्वयं ही बताइये क्या रचना इतनी ’हिली’ हुई थी कि आप इसकी किसी छोर तक को पकड़ पाने में असक्षम-असहाय हो गयी थीं ?!
आदरणीया, हम अक्सर चलताऊ हो जाते हैं .. जबकि वैसे हुआ नहीं करते.
सादर
भाई राम शिरोमणीजी, आप मानसिक रूप से जिस स्थान पर हैं वह वैचारिक दोराहा है. अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस तरफ के लिए उत्सुक हैं. ऐसे ही बढ़ते रहे तो सार्थक रचनाकार तो क्या, एक मनलग्गू विदुषक का मान अवश्य पाइयेगा जिसकी आजकल हास्य-मंचों पर खूब मांग है. .. :-))
वैसे, आप आजकल सार्थक रचना प्रयास कर रहे हैं, यह मालूम है. लेकिन इस हेतु जिस अध्ययन की आवश्यकता हुआ करती है उस केलिए आप द्वारा समय नहीं दे पाना आप ही को चिढ़ाता-सा दीख रहा है.
शुभ-शुभ
आदरणीय गिरिराजजी, आपने जिस गंभीरता से अपनी सीमाओं में प्रस्तुत रचना का भावार्थ प्रस्तुत किया है उसके लिए मैं आपके प्रति हृदय से आभारी हूँ.
सादर
भाई आशीष श्रीवास्तवजी,
आप द्वारा हुई टिप्पणी न केवल निराश कर रही है, बल्कि आपके सम्पूर्ण रचनाकर्म और उसके प्रति आपकी चेष्टा तक पर गहन संशय का कारण बन रही है. ऐसा इसलिये कि आप अक्सर छंदबद्ध रचनाएँ करते हैं.
छांदसिक रचनाओं का रचनाकार पौराणिक बिम्बों और सार्वभौमिक पात्रों से इतना अनजान भी हो सकता है, यह मेरे जैसे व्यक्ति के लिए न केवल आश्चर्य का बल्कि आप जैसे किसी सतत प्रयासरत रचनाकार के कुल प्रयास पर शंकालु होने का कारण बन गया है.
विश्वास है, आप अन्य सुधी पाठकों की टिप्पणियों से लाभान्वित हो पाये होंगे. रचनाकर्म सिर्फ़ अपनी वाही-तबाही सुनाने और तदनुरूप रचनाओं के नाम पर मात्रिक शब्दों को झोंकने का पर्याय नहीं है. यह मैं बचपन से सुनता आ रहा हूँ. ऐसी उक्ति कत्तई गलत नहीं है.
सादर
//हल्दी-कुंकुम-अक्षत-रोरी
तन छू लें
अहिवात निभे अब !!//
अहिवात शब्द का प्रयोग नवगीत में जान डाल दिया है, इस खुबसूरत,अर्थपूर्ण, प्रवाहयुक्त नवगीत पर ढेरों बधाइयाँ आदरणीय सौरभ भईया।
तत्सम शब्द भले लगते थे
अब हर देसज
भाव मोहता
मौन उपटता
धान हुआ तो
अंग-छुआ बर्ताव सोहता सादर आदरणीय गुरुदेव जी .
अनंत अंतरिक्ष का कोई अनछुआ कोना है ये नव गीत ! और यही क्यों , आपकी अधिकतर रचनाएँ जो मैं पढ़ सका ! बाकी किसी तरह का कोई विश्लेषण करते हुए शाब्दिक हो जाना कब आसान रहा है भावों कि इस ऊँचाई में तैरते हुए ? तो मौन निवेदित करता हूँ प्रशंसा में ! सादर !
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