1)
मन उदास है
पता नहीं, क्यों..
झूठे !
पता नहींऽऽ, क्योंऽऽऽ..?
2)
कितना अच्छा है न, ये पेपरवेट !
कुर्सी पर कोई आये, बैठे, जाये
टेबुल पर पड़ा
कुछ नहीं सोचता.. न सोचना चाहता है
प्रयुक्त होता हुआ बस बना रहता है
निर्विकार, निर्लिप्त
बिना उदास हुए
3)
हाँ, चैट हुई
पहले से उलझे कई विन्दु क्या सुलझते
कई और प्रश्न बोझ गयी.
अपलोड कर लेने के बाद ऑफ़िशियल मेल / जरूरी रिपोर्ट
आँखें बन्द कर
पीछे टेक ले
थोड़ी देर निष्क्रिय हो जाना
कोई उपाय तो नहीं,
और, कोई उपाय भी तो नहीं..
अभी !
4)
उम्मीदें भोथरी छुरी होतीं हैं
एक बार में नहीं
रगड़-रगड़ कर काटतीं हैं
फिर भी हम खुद को
और-और सौंपते चले जाते हैं उसके हाथों
लगातार कटते हुए
5)
वो साथ का है
पता नहीं !
वो ’स्सा.. ’ थका है
हाँ पता है.. !!
************
--सौरभ
************
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
मन कार्यालय हुआ के बिम्बों को सार्थक अनुमोदन मिला इस हेतु समस्त आत्मीयजनों को मेरा हार्दिक आभार.
सादर
कितना अच्छा है न, ये पेपरवेट !
कुर्सी पर कोई आये, बैठे, जाये
टेबुल पर पड़ा
कुछ नहीं सोचता.. न सोचना चाहता है
प्रयुक्त होता हुआ बस बना रहता है
निर्विकार, निर्लिप्त
बिना उदास हुए
एकाकी क्षणों में उपजे गहन चिंतन के भाव और सुंदर बिंबों के साथ कविता का जन्म! पूरी रचना गहरा प्रभाव छोडने में समर्थ है इस बेमिसाल कृति के लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीय सौरभ जी
4)
उम्मीदें भोथरी छुरी होतीं हैं
एक बार में नहीं
रगड़-रगड़ कर काटतीं हैं
फिर भी हम खुद को
और-और सौंपते चले जाते हैं उसके हाथों
लगातार कटते हुए ///////////
बहुत ही सुन्दर , वाह क्या ? चित्रण किया है अपने।।।।।।।।।।
आदरणीय सौरभ जी बहुत बहुत बधाई आपको। । सादर
बहुत सुन्दर , अलग किस्म की प्रस्तुति , एक नए आयाम के साथ , पेपर वेट का बिम्ब बहुत निखर कर आया है , काश हम भी पेपर वेट की भांति निर्विकार , निर्विकल्प रह पाते .. सुन्दर रचना ..
आदरणीय सौरभ सर ..आपकी रचनाओं की विविधता , गंभीरता और संकेतात्मकता मुझे बेहद भाती है . आज की यह रचना भी अत्यंत गहन है थोडा थोडा समझ भी रहा हूँ पर पूरी तरह समझ नहीं पा रहा हूँ ....प्रयास रत हूँ .. सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय सौरभ जी
कार्यालयी जीवन से परिचित हर व्यक्ति इन दशाओं से अवश्य ही गुज़रता है..
पेपरवेट की निर्लिप्तता हो या ओफ़िशियल चैट के बोझ से लाद जाने के बाद की मानसिक दशा हो या फिर उम्मीदों के हाथों कटते जाने की पीड़ा का मुखर हो उठना.. इन सब चित्रों ने बहुत प्रभावित किया. पहला शब्दचित्र भी लाजवाब है और चौथा वाला तो बहुत प्रभावी है.
इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
सादर.
आपको यह प्रस्तुति पसंद आयी यह सुन कर मुझे भलालगा. आपकी सदाशयता के लिये हृदय से बधाई, भाई रमेशजी..
कार्यालयीन श ब्दों से मन की दशा अध्यात्म चिंतन को उदृधृत इस रचना हेतु आदरणीय आपको कोटि कोटि बधाई
विशेषकर - उम्मीदें भोथरी छुरी होतीं हैं
एक बार में नहीं
रगड़-रगड़ कर काटतीं हैं
फिर भी हम खुद को
और-और सौंपते चले जाते हैं उसके हाथों
लगातार कटते हुए---------------------------------कटु सत्य
जो अच्छा लगा उसके लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीया
:-))
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय गिरिराज भाईजी..
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