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किया माथे तिलक झट से कहा नाकाम भी मुझको
बहुत ठोका लुहारों सा दिया आराम भी मुझको
*
गिरा तो भी समझ मेरी न आयी शातिरी उसकी
बिठाया पास भी अपने किया बदनाम भी मुझको
*
पता है साथ उसके तो न आया था कभी सूरज
जलाता क्यो न जाने फिर शरद का घाम भी मुझको
*
हसाता चोट देकर भी बड़ा जालिम खुदा पाया
रूला देता न मरने का सुना पैगाम भी मुझको
*
अजब सी रहमतें उसकी अजब ही सब सजाएं हैं
न रखता भोर के काबिल न देता शाम भी मुझको
*
बनाना चाहता है क्या ‘मुसाफिर ’ मैं न समझा ये
सिखाता रावणों के गुर पुकारे राम भी मुझको
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय भाई गिरिराज जी , आपको ग़ज़ल अच्छी लगी लिखना सार्थक हुआ . हार्दिक धन्यवाद .
भाई श्याम नारायण जी , ग़ज़ल कि प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .
आदरणीय लक्ष्मण भाई , लाजवाब ग़ज़ल कही है , तहे दिल से बधाइयाँ कुबूल करें ॥
बनाना चाहता है क्या ‘मुसाफिर ’ मैं न समझा ये
सिखाता रावणों के गुर पुकारे राम भी मुझको --- मक़्ता खूब पसन्द आया भाई , अनेकों बधाइयाँ
सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई सादर |
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