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गरल रख पास शिव जैसा - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

1222    1222    1222    1222

हमारे   दुख  दिखाई  कब  दिए  हैं  देवताओं को
हमेशा  आँकते वो   कम  हमारी  आपदाओं  को

*
मरें  या  जी रहे  हों हम  उन्हें  पूजा  करें  हरदम
न जब भी पूज पाए हम निकल आए सजाओं को

*
नहीं फिर भी हुए खुश वो भले ही सब किया अर्पण
गरल रख पास शिव जैसा सदा सौपा सुधाओं को

*
पुकारा  जब  गया  उनको  दुखों से  हो  परेशा ढब
किया है  अनसुना बरबस  हमारी सब सदाओं को

*
लगा करता जरूरी नित न जाने क्यों उन्हे अब भी
हमारे  संकटों  से   बढ़   नचाना  अप्सराओं   को

*
कभी जब हम जुटा लाए  दिया  कोई करम करके
बुझाने  भेजते  उस को  यहाँ  सौ-सौ  हवाओं  को

*
चलो अब तो बगावत कर तजें हम पूजना उनको
रहेंगे कब तलक  बोलो  तरसते  हम दुआओं को

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 27, 2014 at 10:41am

आदरणीय भाई सौरभ जी , ग़ज़ल कि प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .

आपकी टिपण्णी निरंतर उत्साहवर्धन करती है . हार्दिक आभार .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 27, 2014 at 10:24am

आदरणीय भाई वीनस जी , आप से ग़ज़ल के किये दाद मिली , लेखन सार्थक हुआ . यदा- कदा मार्गदर्शन भी करते रहिएगा . हार्दिक धन्यवाद .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 26, 2014 at 6:32pm

वाह क्या कहन है !  बधाई !!

बात तो सही है.. आकाओं ने साइ-फ़ाइ अप्सराओं को नचाना ही सदा उचित माना है.

:-)))

Comment by वीनस केसरी on March 24, 2014 at 1:49am

वाह भाई जी विद्रोही ग़ज़ल हुई है ... :) :) :)

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 13, 2014 at 9:52am

आदरणीय भाई सतयनारायण जी ग़ज़ल कि प्रशंसा के लिए आभार .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 13, 2014 at 9:51am

आदरणीय भाई शिज्जू जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 13, 2014 at 9:49am

आदरणीय भाई मनोज कुमार जी , सर्वप्रथम आप को इस बात के लिए अत्यधिक हार्दिक धन्यवाद कि आपने मेरी ग़ज़ल को ९० % अंक प्रदान किये , इसका मतलब यह है कि मेरे लेखन में निरंतर सुधर हो प् रहा है .यह सब आप जैसे समस्त साथियों कि टिप्पणियों और मार्गदर्शन का परिणाम है .आशा है आगे भी इसी तरह कमियों से अवगत करते रहिये . मैंने देवताओं को प्रतीकात्मक रूप में लिया है .ये मानवीय और प्राकृतिक दोनों ही हैं , वैसे मेरा अपना जो अनुभव है वह यह है कि मनुष्य देवताओं से प्रेम कम और भयभीत अधिक रहता है देवता भी सहानुभूति कम और भय अधिक पैदा करते हैं .जहाँ तक सुधाओं का प्रयोग करने कि बात है आप सही कह रहे हैं . पर इसके प्रयोग की यहाँ पर विवसता है इसे आप कहन का दोष मन सकते हैं . और इसका प्रयोग बुजुर्ग भाषाविद से परामर्श के बाद ही किया गया है .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 13, 2014 at 9:36am

आदरणीय भाई गिरिराज जी , ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 13, 2014 at 9:35am

आदरणीय श्याम नारायण जी , ग़ज़ल कि प्रसंशा के लिए आभार .

Comment by Satyanarayan Singh on March 8, 2014 at 2:56pm
खूबसूरत ग़ज़ल हेतु बहुत बहुत बधाई आदरणीय

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