1222 1222 1222 1222
हमारे दुख दिखाई कब दिए हैं देवताओं को
हमेशा आँकते वो कम हमारी आपदाओं को
*
मरें या जी रहे हों हम उन्हें पूजा करें हरदम
न जब भी पूज पाए हम निकल आए सजाओं को
*
नहीं फिर भी हुए खुश वो भले ही सब किया अर्पण
गरल रख पास शिव जैसा सदा सौपा सुधाओं को
*
पुकारा जब गया उनको दुखों से हो परेशा ढब
किया है अनसुना बरबस हमारी सब सदाओं को
*
लगा करता जरूरी नित न जाने क्यों उन्हे अब भी
हमारे संकटों से बढ़ नचाना अप्सराओं को
*
कभी जब हम जुटा लाए दिया कोई करम करके
बुझाने भेजते उस को यहाँ सौ-सौ हवाओं को
*
चलो अब तो बगावत कर तजें हम पूजना उनको
रहेंगे कब तलक बोलो तरसते हम दुआओं को
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय भाई सौरभ जी , ग़ज़ल कि प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .
आपकी टिपण्णी निरंतर उत्साहवर्धन करती है . हार्दिक आभार .
आदरणीय भाई वीनस जी , आप से ग़ज़ल के किये दाद मिली , लेखन सार्थक हुआ . यदा- कदा मार्गदर्शन भी करते रहिएगा . हार्दिक धन्यवाद .
वाह क्या कहन है ! बधाई !!
बात तो सही है.. आकाओं ने साइ-फ़ाइ अप्सराओं को नचाना ही सदा उचित माना है.
:-)))
वाह भाई जी विद्रोही ग़ज़ल हुई है ... :) :) :)
आदरणीय भाई सतयनारायण जी ग़ज़ल कि प्रशंसा के लिए आभार .
आदरणीय भाई शिज्जू जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .
आदरणीय भाई मनोज कुमार जी , सर्वप्रथम आप को इस बात के लिए अत्यधिक हार्दिक धन्यवाद कि आपने मेरी ग़ज़ल को ९० % अंक प्रदान किये , इसका मतलब यह है कि मेरे लेखन में निरंतर सुधर हो प् रहा है .यह सब आप जैसे समस्त साथियों कि टिप्पणियों और मार्गदर्शन का परिणाम है .आशा है आगे भी इसी तरह कमियों से अवगत करते रहिये . मैंने देवताओं को प्रतीकात्मक रूप में लिया है .ये मानवीय और प्राकृतिक दोनों ही हैं , वैसे मेरा अपना जो अनुभव है वह यह है कि मनुष्य देवताओं से प्रेम कम और भयभीत अधिक रहता है देवता भी सहानुभूति कम और भय अधिक पैदा करते हैं .जहाँ तक सुधाओं का प्रयोग करने कि बात है आप सही कह रहे हैं . पर इसके प्रयोग की यहाँ पर विवसता है इसे आप कहन का दोष मन सकते हैं . और इसका प्रयोग बुजुर्ग भाषाविद से परामर्श के बाद ही किया गया है .
आदरणीय भाई गिरिराज जी , ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .
आदरणीय श्याम नारायण जी , ग़ज़ल कि प्रसंशा के लिए आभार .
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