स्व के पार ...
हाथ से हाथ छूटने की
तारीख़ तो सपनों को पता है
हाथ फिर कभी मिलेंगे ...
तारीख़ का पता नहीं
तुम्हारे चले जाने के बाद
मेरे दिन और रात
उदास, चुपचाप, कतरा-कतरा
बहते रहे हैं
मेरे वक्त के परिंदे की पथराई पलकें
इन उनींदी आँखों की सिलवटों-सी भारी
उम्र के सिमटते हुए दायरों के बीच
थके हुए इशारों से मुझसे
हर रोज़ कुछ कह जाती हैं
और मैं रोज़ कोई नया बहाना लिए
एक दिन और माँग लिया करता हूँ
जानता हूँ
तुम आओगी ...
कब आओगी?
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
//रचना के मार्मिक भाव बड़े ही हृदयस्पर्शी हैं.
विछोह के लम्बे अर्से के बाद भी सम्बन्धों को और प्रगाढ़ता से सींचना...आपसे सीखे//
रचना पर ऐसी सराहना पाना मेरे लिए उत्साहवर्धक है। आपका हार्दिक आभार, आदरणीया वंदना जी।
सादर, विजय
आदरणीय सौरभ भाई, रचना की सरहाना के लिए और अंतिम पंक्ति पर प्रकाश डालने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद।
सादर, विजय
//सच ....कुछ मेरे शब्दों जैसी लगी ये लाइन्स ...//
कोई भी रचनाकार इन शब्दों से प्रभावित होगा। ऐसी सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया प्रियंका जी।
आदरणीय भाई लक्ष्मण जी, रचना की सराहना के लिए धन्यवाद।
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई गिरिराज जी।
आदरणीय विजय साहब, अंतिम पंक्ति में आया प्रश्न काश इस प्रस्तुति का हिस्सा न होता.
प्रतीक्षारत को क्या परवाह कि वो कब आये ? अरे, चाहे जब आये... मर भी गये तो आँखें खुली रहेंगी.
आपकी संवेदनशीलता संभवतः मेरे कहे को समझ रही होगी.
एक अत्यंत मुलायम कविता के लिए बहुत-बहुत बधाइयाँ.
सादर
//कितना प्रिय रहा होगा वो जिसे देखे बिना मरने का मन भी न करें और उसका वियोग कितना दारुण , ये सोचकर मन सिहर जाता है ! अत्यंत भावपूर्ण !//
रचना के मर्म के साथ आत्मसात होने के लिए हा्र्दिक आभार, भाई अरून श्री जी।
//बहुत खूब बेहद भावपूर्ण ह्रदयस्पर्शी रचना है दिली दाद कुबूल करें//
आपका हार्दिक आभार, भाई शिज्जु जी। स्नेह बनाए रखें।
//बहुत सुंदर भाव, सरल शब्दों से संजोयी रचना, बधाई स्वीकारें//
इस प्रशंसा के लिए आपका आभारी हूँ, आदरणीय जितेन्द्र भाई ।
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