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छाँह में छिपना चाहता हूँ ..... (विजय निकोर)

 छाँह में छिपना चाहता हूँ ...

 

तुम कहते हो मैं भी

चाँद की चाँदनी को पी लूँ ?

कल  हर भूखे का

भोजन निश्चित है क्या ?

 

आशा-अनाशा की उलझी

परस्पर लड़ती हुई हवाएँ

गम्भीर वास्तविकताएँ

दिन के उजाले में मन से ओझल

मध्य-रात्रि के सूने में तहों के नीचे से

उद्दीप्त, प्रकाशबिम्ब-सी

 

संकेतक हैं जीवन के लक्ष्य की

पर अधूरी-सतही ज़िन्दगी का

कोई खोखला हिस्सा

वस्तुत: असम्भव-सा

बदलता नहीं

अन्दर गहरे कुछ बदलता नहीं

 

अपने ही खयालों की भयानक

प्रतिध्वनि सुनकर

भीतर मेरे अपने से कुछ

गिर जाता है  हर रात

अंधेरे में खयालों के कगारों से

तैरती-उतरती चली आती

जन-समस्याएँ

दिशा-दिशा से मानव की

असहय पीड़ा की आवाज़ें

 

सड़क पर भीख मांगते भूखे-नंगे बच्चे

जीर्ण शरीरों पर गरम लोहे के निशान

मात्र एक रोटी के लिए उनकी

दर्द भरी करूणामय पुकार

माथे पर जो रखा हाथ

उन्हें था कब से बुखार

 

कहीं किसी ससुराल में सिसकती

किसी की बेटी की आँखों में

हृदय विदारक आँसू

गरीब माँ की तड़प

बेटी की खुशी के लिए

मंगल सूत्र भी बेच चुकी है

 

उदास गरीब बाप बेचारा

सड़क के कोने पर खड़ा

रेड़ी पर थोड़े-से केले बेच रहा

घर में बेटे की लाश

ज़िन्दगी में कभी बच्चे को

नया कपड़ा दे न सका

कफ़न की चादर के लिए

आज चाहिए उसे कुछ पैसे

 

यह टप-टप टपकती गहरी

मानव की मानव के प्रति बढ़ती

अग्निमय असंवेदनशीलता

अन्य की पीड़ा निगाहों से ओझल

गरीबों के कंधों पर अमीरों का भार

इतनी प्रश्न-मुद्राएँ ...

मेरी आँखों का भ्रम ? नहीं, नहीं, नहीं

आर-पार फैली है अधूरी सतही मानवता

 

तुम कैसे कहते हो मैं भी

चाँद की चाँदनी को पी लूँ

दोस्त, मैं मानव कहलाने से लजाता

आज अपनी छाँह में छिपना चाहता हूँ

 

                 --------

                                   -- विजय निकोर

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

 

 

 

 

 

Views: 775

Comment

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Comment by narendrasinh chauhan on April 28, 2017 at 6:07pm

दिल को छू लेने वाली रचना 

Comment by vijay nikore on May 16, 2014 at 8:16am

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई लक्ष्मण जी।

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 10, 2014 at 6:53pm

दोस्त, मैं मानव कहलाने से लजाता

आज अपनी छाँह में छिपना चाहता हूँ  -----जब मानव में इंसानियत की जगह पशुता जन्म ले रही हो, तब आदमी को आदमी कहलाने में भी लाज आना स्वाभविक है |  सुन्दर और सार्थक रचना हुई है | हार्दिक बधाई श्री विजय निकोरे जी 

Comment by Vindu Babu on May 10, 2014 at 5:42am

  इस सार्थक विमर्श के लिए मेरी उत्सुकता और सम्वेदना सादर निवेदित है आदरणीय।

और यथा/बचकाना अनुभव भी।

।इस महत्वपूर्ण सामाजिक विषय पर आपके आलेख की सादर प्रतीक्षा है...

सादर...शुभ शुभ

Comment by vijay nikore on May 8, 2014 at 11:06am

//ओह ! मानव का समाज मानव के लिए कितना असंवेदनशील होता है !//

रचना के मर्म को आदर देने  के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सौरभ जी।

Comment by vijay nikore on May 8, 2014 at 11:00am

आपने कहा.....

 

//आपकी इस अभिव्यक्ति को पढ़कर आँखे भर आईं,//

//क्या इस तरह के(जैसी आपकी यह कविता) अति संवेदनशील साहित्य को पढ़कर/लिखकर हम अपने अन्दर उस सम्वेदना को जी पा रहे हैं,जिसकी आवश्यकता वास्तव में 'इस' समाज(जिसका वर्णन आपने कविता में किया है) को है,यदि जी पा रहे हैं तो वो क्षणिक तो नहीं...जीकर फिर उसका क्रियान्वयन कर पा रहें हैं....इन विन्दुओं पर थोड़ा सा विचार करने की आवश्यकता है.//


आदरणीया विन्दु जी: आपने समाज के नाम पर हम सभी के लिए अति-सूक्षम प्रश्न दिए हैं, कयूँकि समाज हम सभी ही हैं। समाज में कितने लोग आँख मीच कर चलते हैं, कुछ आँख खोल कर चलते हैं परन्तु सीधी सड़क पर.. दायं-बांयं देखे बिना, और कुछ एक किसी की कठिनाई को देख कर रूक जाते हैं और वास्तव में शब्दों के पार जा कर असली सहायता करते हैं। यह सभी ठीक हैं, क्यूंकि हर किसी को अपने जीने का महत्व स्वयं और स्वयं के लिए परिभाषित करना है। इस प्रकार हम सभी अपनी आत्मा की आवाज़ सुनने के लिए एकाकी हैं।

 

अब आपके दूसरे प्रश्न का उत्तर : यदि किसी के मन में इस रचना को पढ़ कर संवेदना उमड़ेगी तो वह क्षणिक् ही होगी, हाँ, यदि मानव की मानव के प्रति संवेदना पहले से ही होगी तो ऐसी सच्चाई से पूर्ण रचना उसको किसी के लिए कुछ करने को प्रेरित कर सकती है। आपके इन अच्छे प्रश्नों पर अलग से आलेख के द्वारा विमर्ष हो सकता है, परन्तु उसके लिए भी एक विशेष उत्सुक्ता चाहिए, विशेष संवेदना चाहिए।

 

आपने पहनी नज़र से इस कविता को देखा, आपका हार्दिक आभार, आदरणीया विन्दु जी।

 

इन बिन्दुओं पर आपके अपने विचार, और विचारों से अधिक आपके निजी अनुभव जानने की जिज्ञासा रहेगी आदरणीया।

 

सादर।

Comment by vijay nikore on May 8, 2014 at 10:30am

 

//दिल भर आया आपकी अभिव्यक्ति पढ़ .....किस कदर अपने दर्द महसूस किया और उसे शब्दों में उकेरा...... निःशब्द हो गयी हूँ .//


आदारणीया प्रियंका जी, किसी भी कवि की कृति पाठक को इस प्रकार ठहरा ले, संवेदना उकेरे, तो कवि के लिए यह पारितोषिक से कम नहीं है। आपका हार्दिक आभार  आदरणीया ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2014 at 1:44am

ओह ! मानव का समाज मानव के लिए कितना असंवेदनशील होता है !

सादर बधाई आदरणीय

Comment by vijay nikore on April 29, 2014 at 4:16pm

//यथार्थ की असीम  गहराई को अपनी रचना में आपने बयां किया. यह आपकी अनुभवी लेखनी का ही कमाल है//

इन शब्दों से आपने इस रचना को बहुत मान दिया है। आपका हार्दिक आभार, आदरणीय जितेन्द्र जी।

Comment by vijay nikore on April 28, 2014 at 12:30pm

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया कल्पना जी।

कृपया ध्यान दे...

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