सभी रास्ताें पर सिपाही खटे हैं
ताे फिर लाेग क्याें रास्ते से हटे हैं ।
सियासत अाै मज़हब की दीवारें देखाे
दीवाराें से ही लाेग गुमसुम सटे हैं ।
सरहद है सराें के लिए अाखरी हद
अकारण यहाँ पर कई सर कटे हैं ।
चमकती फिसलती हैं कारें महंगी
मगर अादमीयत के जूते फटे हैं ।
जिन्हें मुल्क बरबाद करने की जिद थी
वही लाेग सिंहासनाें पर डटे हैं ।
तुम्हारे लिए जश्न हाेगा ये मेला
मुझे बेचने कुछ चने चटपटे हैं ।
(माैलिक व अप्रकाशित)
Comment
ग़ज़ल बहुत अच्छी है साद्गी से कही गयी गहरी बातें दिल को छू जाती हैं।
इस हद पर कई बेकसूर सर कटे हैं ।
यहाँ थोड़ी बहर की समस्या दिख रही है, कृपया देख लें, । सादर।
सभी अश'आर पसंद आये ... बहुत सलीके से कहन को शब्द मिले हैं
जिन्हें मुल्क बरबाद करने की जिद थी
वही लाेग सिंहासनाें पर डटे हैं । ...................क्या खूब कहा है!
कुछ मिसरे बहर से थोड़ा इधर उधर लगे
इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई
सुन्दर ग़ज़ल भाई जी वाहह
इस ग़ज़ल के तीसरे शेर का उला इस प्रकार था :
"सरहद है सराें के लिए अाँखरी हद"
अादरणीय भुवन निस्तेज जी ने मेसेज में जाे सुझाया था उसके पश्चात मैने इसे संशाेधन कर के निम्नानुसार बनाया है :
"है सरहद सराें के लिए अाखरी हद"
रचनात्मक सुझाव के लिए अादरणीय भुवन जी के प्रति हार्दिक अाभार ।
अादरणीय जितेन्द्र 'गीत' जी हार्दिक धन्यवाद । अापने इन लफ्जाें काे इतना महत्व दिया । मैं अाभार प्रकट करते हुए काफी अानंदित हाे रहा हूँ ।
बहुत सुंदर गजल कही आपने आदरणीय कृष्णा जी, हर एक शेर लाजवाब हुआ
तुम्हारे लिए जश्न हाेगा ये मेला
मुझे बेचने कुछ चने चटपटे हैं । ...........दिली बधाई स्वीकार करें
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