कैसी शुष्कता है?
जो धूप में
बदन झुलसा रही..
भीतर इतनी आग
विरह की जो
केवल धुआँ
और धुआँ देती है
राख तक नसीब नहीं
जिसे रख दूँ संजो कर
तेरी हथेली पर
जब मिलन की बेला हो
और कहूँ कि....
यह पाया मैंने
तुझ बिन...!
जितेन्द्र ' गीत '
( मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
रचना में आपको भाव रुचिकर लगे, रचना धन्य हुई आदरणीय राम भाई. स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
आपका ह्रदय से आभार आदरणीय विजय जी, अपना स्नेह व् आशीर्वाद हमेशा बनाये रखियेगा
सादर!
आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय शरदिंदु जी, आपकी रचना पर प्रतिक्रिया से बहुत ख़ुशी व् लेखन को मनोबल मिला. स्नेहिल आशीर्वाद बनाये रखियेगा
सादर!
आदरणीय बृजेश जी, रचना पर आपकी उत्साहवर्धक सराहना से बहुत संबल मिलता है, अपना स्नेहिल मार्गदर्शन बनाये रखियेगा
सादर!
रचना की सराहना हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय श्यामनारायण जी, स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीया सरिता जी, स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया से रचना धन्य हो गई आदरणीय प्रदीप जी, आपका ह्रदय से आभार
सादर!
आपने रचना के भावों को छुआ, मेरा लेखन सार्थक हुआ आदरणीय अरुण श्री जी. अपना स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
भाव अच्छे लगे आदरणीय .......... हार्दिक बधाई आपको
रचना पर आपकी उपस्थिति से मन को बहुत ख़ुशी मिलती है आदरणीय चंद्रशेखर जी, स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
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