मजदूरी कर पालता अपना वो परिवार
रोज दिहाड़ी वो करे देखे ना दिन वार |
देखे ना दिन वार नहीं देखे बीमारी
कैसे पाले पेट वार है इक इक भारी
मंहगाई अपार ,यही उसकी मज़बूरी
गेंहू चावल दाल मिले जो हो मजदूरी ||
उसका जीवन है बना दर्द भूख औ प्यास
मजदूरी किस्मत बनी जब तक तन में श्वास |
जब तक तन में श्वास पड़ेगा उसको सहना
तसला धूल कुदाल पसीना उसका गहना
सरिता पूछे आज कहो कसूर है किसका
भूखा है मजदूर पेट भरे कौन उसका ||
.....................................................
,,,,,,,,,,,मौलिक व अप्रकाशित.,,,,,,,,,,,,,,
Comment
कुंती दीदी शुक्रिया स्नेह बनाये रखें
आदरणीय गोपाल सर मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार
शुक्रिया श्याम नारायण जी
बहुत बढ़िया आदरणीय सरिता जी आपकी दोनों कुण्डलिया बेहतरीन बन पड़ी है
बहुत मार्मिक रचना है...सरिता जी...हार्दिक बधाई.
मंहगाई अपार में लय टूटती है i कारण, मं में उच्चारण में बिंदु पर जोर नहीं पड़ता i यह एकही मात्रा मानी जायेगी i
मंहगाई की मार यही उसकी मजबूरी कर दे तो प्रवाह आ जायेगा i बहुत अच्छा प्रयास है i
बहुत सुंदर भावपूर्ण कुण्डलिया है, आपको हार्दिक बधाई। |
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