ऐ प्रकृति,सूक्ष्म आत्मा तुम रहती हो मुझमे
मैं गेह मात्र हूँ,तुम ही इसकी सत वासी
नश्वर अस्तित्व हमारा मिलने दो खुद में;
बन जाने दो मुझे अलौकिक दैवी राशी।
मन तुझे दिया,अपने मन का तुम पथ गढ़ना
सभी समर्पित इच्छाएं,ये तेरी हो जावें
पीछे कोई अंश हमारा नहीं छोड़ना
अद्भुत,नीरव सा मिलन हमारा हो जावे।
तेरा प्रेम,जग-प्राण,मेरा उर उसी संग
स्पन्दित होगा,और मेद, मेदनी हित।
नसों शिराओं में होगी आनन्द-तरंग
प्रकाश-शिकारी होगा चिन्तन,पाए शक्ति।
प्रभु! मेरी आत्मा तेरे प्रेम में लीन रहे।
हर आकार-जीव में तेरा हीनित दर्श रहे।।
-विन्दु बाबू
(यह कविता श्री अरबिंदो की सॉनेट 'Surrender' का भावानुवाद व् पद्यानुवाद करने का प्रयास है। इन महान संत,दार्शनिक और साहित्यकार की सभी सोनेट्स अनूदित करने के श्रंखलाबद्ध प्रयास में यह अनुवाद दूसरे प्रयास के रूप में प्रस्तुत है। आपका सुधारात्मक सुझाव सादर अपेक्षित है।)
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
महर्षि अरविन्द जैसे महान विभितियों के भावों को अनुवाद के जरिये सामने लाने के आपके स्तुत्य प्रयास के लिए हार्दिक बधाई
आदरणीया बिंदु जी ..आपका यह प्रयास सरहनीय है ..गहन आध्यत्मिक अनभूति दर्शाती शानदार रचना ..सादर बधाई के साथ
अति सुंदर भाव, बधाई आदरणीया विन्दु जी
बहुत खूबसूरत। मुझे सॉनेट विधा की जानकारी नहीं है पर भाव पक्ष की बात करूँ तो लाजवाब है। आमतौर पर किसी और भाषा की रचना का अनुवाद किया जाये तो अक्सर शब्द संयोजन बिगड़ जाता है जिसका असर प्रवाह पर पड़ता है, कई दफे मायने बदल जाते हैं। लेकिन इस रचना का प्रवाह पाठक को बाँधे रखता है बहुत बढ़िया दिली मुबारक बाद आपको एवं शुभकामनायें।
सादर,
बहुत सुंदर प्रयास है वंदना.वैसे श्री अरबिंदो को समझना अपने आपमें एक चुनौती है.....अनेक शुभकामनाएँ.
विन्दु जी
प्रयास सराहनीय है i आप एक अच्छा कार्य कर रही है i मेरी शुभ कामना i
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