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मुल्क़ में किस्सा इक नया तो हो
अब अज़ीयत की इंतिहा तो हो अज़ीयत =यातना
ग़म से किसको मिली नजात यहाँ
मर्ज़ कहते हो फिर दवा तो हो
जी उठेगा फिर अपनी राख से पर
वो मुकम्मल अभी जला तो हो
दीनो-ईमाँ की बात करते हैं
हो हरम दिल में बुतकदा तो हो हरम =मस्जिद, बुतकदा =मंदिर
ज़ह्र अपनी ज़बान से छूकर
कह रहे हैं कि तज़्रिबा तो हो
रुख़ हवा का बदल गया है “शकूर”
किस तरफ चलना है पता तो हो
- मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय जी रचना की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय डॉ आशुतोष सर ग़ज़ल को मान देने के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूँ
रुख़ हवा का बदल गया है “शकूर”
किस तरफ चलना है पता तो हो ..बेहतरीन
आपकी तमाम बेहतरीन ग़ज़लों में से मेरी एक और पसंदीदा ग़ज़ल ..इस शानदार राचन के लिए तहे दिल बधाई सादर
आदरणीय जितेन्द्र भाई आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय निलेश भाई आपका हार्दिक आभार
आदरणीय सुशील सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीया कुंती जी आपका हार्दिक आभार
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर आपका तहे दिल से शुक्रिया
जी उठेगा फिर अपनी राख से पर
वो मुकम्मल अभी जला तो हो................वाह! बहुत ही सुंदर, बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय शिज्जू जी
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