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तुम रुको,
मैं स्नेह से
दीपक जला लूँ.

तुम झुको,
मनुहार से मैं
चित्र भावों का बना लूँ .

कौन जाने कब
मिले फिर
आज तो यह गीत गालूँ.

तुम रुको,
मैं स्नेह से
दीपक जला लूँ.

विजयप्रकाश
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 19, 2014 at 1:54pm

आ० विजय निकोर जी,रचना आपको पसंद आयी , प्रोत्साहन के लिए आभार.

Comment by vijay nikore on June 19, 2014 at 1:21pm

भाव उत्तम हैं, बधाई विजय जी।

Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 18, 2014 at 9:41am

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी , नमस्कार -यह क्षणिका आपको पसंद आयी ,
हार्दिक आभार।स्नेह बनाये रखें .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 18, 2014 at 2:25am

प्रस्तुत क्षणिका में उत्सर्ग के अनुपम एवं पवित्र भाव साझा हुए हैं आदरणीय

शुभकामनाएँ व सादर बधाइयाँ

Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 13, 2014 at 12:47am

रचना आपको पसंद आयी .
सराहने के लिए बहुत बहुत आभार मीना जी.

Comment by Meena Pathak on June 12, 2014 at 9:48pm

बेहतरीन रचना .. बधाई आप को आदरणीय विजय जी 

Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 12, 2014 at 7:27pm

आभार गिरिराज भाई.स्नेह बनाये रखें.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 12, 2014 at 5:55pm

सुनदर भाव्व अभिव्यक्ति , आदरणीय बधाइयाँ ॥

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