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हमें माझी की आदत है उसी के ही सहारे हैं
डुबो दे बीच में चाहे, वो चाहे तो किनारे हैं
मिटाने को हमें अब जा मिला घड़ियाल से माझी
कि साज़िश के निशाने पर ही हमने दिन गुजारे हैं
चमकती चीज ही मिलती रही सौगात में हमको
समझ बैठे ये धोखे से कि किस्मत में सितारे हैं
सियासत जो हमारे घर में ही होने लगी है अब
तभी हर बात में कहने लगे वो हम तुम्हारे हैं
अदावत घर में ही होने लगे तो क्या करें साहिब
बताएं क्या कि हर सूरत हमी अपनों से हारे हैं
संजू शब्दिता मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी आपके उम्दा शेर प्रस्तुत ग़ज़ल का मनोबल बढ़ा रहे हैं ... शानदार प्रतिक्रिया हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद।
आ0 कुंती जी आपके स्नेहसिक्त आशीष के लिए आपका हृदय से धन्यवाद
आ0 कल्पना दी आपका अनुमोदन पाकर लिखना सार्थक हुआ ॥ बहुत बहुत शुक्रिया आपका
आदरनिया महिमा जी हार्दिक आभार आपका
आदरणीय गुमनाम जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका
आदरणीय वीनस जी बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी दी आपने.... इसके लिए आपका हृदय से आभार । ग़ज़ल पर आपके पुनः आने की प्रतीक्षा रहेगी । आपकी सदाशयता के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद . सादर
आदरणीय अभिनव अरुण जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका
आदरणीय विजय शंकर जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका
आ0 गीतिका जी आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी से मन खुश हो गया .... हार्दिक आभार
आ0 राजेश जी ग़ज़ल आपको पसंद आई ,लिखना सार्थक हुआ । ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति हेतु हृदय से आभार .
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