अपनी हर सांस में …
अपनी हर सांस में...तुझे करीब पाता हूँ
तुझे हर ख्याल में अपना हबीब पाता हूँ
बिन तेरे ज़िंदगी की हर मसर्रत है झूठी
राहे वफ़ा में तुझे अपना नसीब पाता हूँ
तुम्हारे वाद-ए-फ़र्दा पर ..यकीं करूँ कैसे
हर दीद में इक तिश्नगी ..अजीब पाता हूँ
कूए कातिल से गुजरना ..आदत है मेरी
अपने ज़ख्मों में .अपना अज़ीज़ पाता हूँ
रूए-ज़ेबा को भला ज़हन से भुलाऊँ कैसे
बिन तुम्हारे तो मैं खुद को गरीब पाता हूँ
(मसर्रत = खुशी ,वाद-ऐ-फ़र्दा = कल आने का वादा ,
कूए कातिल = कातिल की गली ,रूए ज़ेबा =सुंदर चेहरा )
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी रचना पर आपकी स्नेहात्मक प्रशंसा और आत्मीय सुझाव का हार्दिक आभार। मैं आपके सुझाव को अमल में लाने का अवशय प्रयास करूंगा।
आदरनीया सुशील सरन भाई , बहुत सुन्दर रचना लगी , मेरी दिली बधाइयाँ स्वीकार करें । मिसरे अगर एक ही बह्र मे होते तो खूब सूरत ग़ज़ल हो सकती थी , आदरनीय थोड़ा प्रयास कर देखिये ॥
आदरणीया महिमा श्री जी रचना पर आपकी आत्मीय स्नेहात्मक अभिव्यक्ति का हार्दिक आभार
आदरणीय विजय निकोर जी रचना पर आपकी स्नेहाशीष का हार्दिक आभार
बहुत खूब आदरणीय .. बधाई स्वीकार करें सादर
रचना अच्छी लगी। बधाई आदरणीय सुशील जी।
आदरणीया कुंती मुख़र्जी रचना पर आपकी मधुर अभिव्यक्ति का हार्दिक आभार
आदरणीया मीना पाठक जी रचना पर आपकी मधुर अभिव्यक्ति का हार्दिक आभार
आदरणीय जितेन्द्र गीत जी रचना पर आपकी स्नेहिल अभिव्यक्ति का हार्दिक आभार
कूए कातिल से गुजरना ..आदत है मेरी
अपने ज़ख्मों में .अपना अज़ीज़ पाता हूँ....क्या बात है.
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