2122 1122 22
बिजलियाँ हैं न हवा सावन में
गुज़री बेआब घटा सावन में
गर्म रातें ये सहर भी बेचैन
यूँ बुरा हाल हुआ सावन में
गुल खिले हैं न शिगूफ़े हँसते
है न रंगों का पता सावन में
खेत तालाब शजर भी सूखे
आसमाँ सूख गया सावन में
मुन्तज़िर सर्द फुहारों के अब
थक गई है ये फ़िज़ा सावन में
याद आती है हवा की ठण्डक
सब्ज़रंगी वो रिदा सावन में
मुन्तज़िर= इन्तज़ार में
शिगूफ़ा = कली
सब्ज़रंगी = हरे रंग की
रिदा = चादर
-(मौलिक, अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय गिरिराज सर आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय डॉ आशुतोष सर आपका हार्दिक आभार
खेत तालाब शजर भी सूखे
आसमाँ सूख गया सावन में.. . वाह !
इस ग़ज़ल केलिए ढेर सारी दाद, शिज्जू भाईजी.. .
आदरणीय शिज्जु भाई , उचित समय मे आपकी उचित श्रावणी गज़ल बहुत सार्थक और सुन्दर लगी , आपको दिली बधाइयाँ ॥
आदरणीय शिज्जू जी ..क्या जबर्दस्त ग़ज़ल ..मौसम के आज कल के हाल का बखूबी चित्रन किया है आपने ..तमाम उर्दू के शब्द सीखने को मिलते हैं ..आपकी इस शानदार रचना पर मेरी तरफ से हार्दिक बधाई सादर
आदरणीया मंजरी जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय गोपाल नारायण सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया जो आपने रचना को समय दिया एवं सराहा
आदरणीय सुशील सरना सर रचना की सराहना के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया
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