ये पल पल
गहराता कभी न
खत्म होने वाला
सन्नाटा
नहीं ....ये शान्ति नहीं है
चुप्पी भी नहीं है
न ....विराम है
ज़िन्दगी का
बहते समय का, गुज़रते दिनों का
फिर क्यूँ ये
ठहरा सा लगता है
जैसे
बांध के टांग दिया है
दीवार पर
इन बीतते दिनों को
शामों को, रातों को और
अलगे हर दिन को
कभी कभी
यूँ लगता है जैसे
कई सालों से यही है समय
यही था और इसी तरह रहेगा
शायद कुछ
खोया है इसका भी
या अपनी सुध खो
बैठा है....
क्या करू ?
कैसे जगाऊं इसे
थपथपी लगाऊं....गालों पर
इसका सर सहला दूँ या
पानी उड़ेल दूँ इसके चेहरे पर
चिकुटी काटूं हाथों पर या
पैरों में गुलगुला दूँ .....क्या करू
कैसे सुध में लाऊं
कैसे जगाऊं इसे
पड़ा तो ऐसे है
मानो फिर न उठाना हो
क्या कहूँ इसको
जो ये जागे...फिर
अपनी जात सा
तेज़ क़दमों संग भागे
तेरी चंचलता ही भाती है हमें
चल उठ चल ....बहुत हुआ
नियति तुझे बुलाती है
अब उठ चल .....
(मौलिक एवम् अप्रकाशित)
प्रियंका......
Comment
इस मंच पर आपकी पहली सार्थक रचना के लिए बधाई .. . आपने और भी अच्छी रचनायें प्रस्तुत की हैं, परन्तु इस रचना ने मुझे आपके रचनाकर्म के प्रति आश्वस्त किया है.
हार्दिक बधाइयाँ.
टंकण त्रुटियों के प्रति संवेदनशील रहें.
बहुत बहुत शुक्रिया ब्रजेश सर ...
बहुत सुन्दर रचना! आपको बहुत-बहुत बधाई!
आदरणीय विजय सर
आपकी पसंदगी का बहुत बहुत आभार ....यूँही सराहते रहे .... आभार सर
आपकी रचना के खयालों में ताज़गी है, समय के प्रति कल्पना मनोहारी है।
संवेद्नपूर्ण भावों की रसधारा से आप्लावित आपकी अति सुन्दर कविता मन को छू गई।
ढेर बधाई एवं सराहना के साथ।
शिज्जू सर ...बहुत बहुत शुक्रिया आपका ...सराहते रहे ...
जितेन्द्र जी ...रचना आपको पसंद आई अच्छा लगा ....बहुत बहुत धन्यवाद आपका ...
आदरणीय गोपाल सर .... रचना की सराहना हेतु बहुत बहुत आभार आपका ....
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