निराशा की ऊँची लहरों
और आशा के सपाट प्रवाह के बीच
मन हिचकोले खा रहा है
कभी निराशा अपने पाश में बाँध कर खींच ले जाये
कभी आशाएँ
मुझे ले जाकर किनारे पहुँचा दें
कभी सोचता हूँ
बह चलूँ लहरों के साथ
कभी लगे
बाहर आ जाऊँ इस गर्दिश से
ये किस मुकाम पर हूँ
ये कौन सा मोड़ है
पल-पल उठती रौशनी भी
भ्रमित कर दे कुछ देर को
कि रास्ता बदल लूँ
या चलता रहूँ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ सर आपका तहेदिल शुक्रिया
आदरणीया मीनाजी रचना की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय गिरिराज सर आपका हार्दिक आभार
आदरणीय करुण सर आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीया कल्पना जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय वेदिका जी ज़र्रानवाज़ी के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय जितेन्द्र भाई आपका हार्दिक आभार
आदरणीया राजेश दीदी आपका हार्दिक आभार
रोज़ाना की कश्मकश और ज़िन्दग़ी की जद्दोजहद को निहायत जिम्मेदारी से आपने बाँधने की कोशिश की है.
अतुकान्त पर हो रहा प्रयास सार्थक है. हार्दिक बधाइयाँ और अनेकानेक शुभकामनाएँ ..
ये किस मुकाम पर हूँ
ये कौन सा मोड़ है
पल-पल उठती रौशनी भी
भ्रमित कर दे कुछ देर को
कि रास्ता बदल लूँ
या चलता रहू ..................आशा और निराशा के बीच ये मन ......सुन्दर रचना , बधाई आदरणीय शिज्जू जी
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