1222/ 1222/ 1222
बहुत सोचा तुम्हें आखिर भुला दूँ मैं
जले लौ तो उसे खुद ही हवा दूँ मैं
उदासी का सबब गर पूछ लें मुझसे
अज़ीयत के निशाँ उनको दिखा दूँ मैं
कभी सागर कभी सहरा कभी जंगल
यूँ क्या-क्या बेख़याली में बना दूँ मैं
हक़ीकत तो बदल सकती नहीं फिर क्यों
गुजश्ता उन पलों को अब सदा दूँ मैं
तुम्हारी कुर्बतों के छाँटकर लम्हे
किताबों का हर इक पन्ना सजा दूँ मैं
इन आँखों से टपकती बून्दों को इक-इक
समंदर में गिरा कर फिर बहा दूँ मैं
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया राजेश दीदी आपका हार्दिक आभार
हक़ीकत तो बदल सकती नहीं फिर क्यों
गुजश्ता उन पलों को अब सदा दूँ मैं ----शानदार शेर
तुम्हारी कुर्बतों के छाँटकर लम्हे
किताबों का हरिक पन्ना सजा दूँ मैं-----बहुत खूब,..... उम्दा ....हर इक लिख दें तो और सुन्दर लगेगा
बहुत बढ़िया ग़ज़ल ..शिज्जू भैया बधाई आपको
आदरणीय सौरभ सर आपका हार्दिक आभार
आदरणीय डॉ आशुतोष सर रचना की सराहना के लिये बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय गिरिराज सर आपका तहेदिल से शुक्रिया
इस ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई शिज्जू भाईजी.. .
वाह शिज्जू जी ..पढ़कर आनंद आ गया ..उर्दू के शब्दों का अर्थ इस ग़ज़ल में मुझे नहीं मिला .मशक्कत करने पडी ..हर शेर उम्दा है इस शानदार ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधाई सादर
आदरणीय शिज्जु भाई ,पूरी ग़ज़ल बढ़िया , रवाँ है , सभी अश आर खूबसूरत हैं , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥ उनमे से ये शेर बहुत ही पसंद आया -
हक़ीकत तो बदल सकती नहीं फिर क्यों
गुजश्ता उन पलों को अब सदा दूँ मैं -------- क्या बात है भाई !! ढेरों बधाई ॥
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया आपकी सराहना एवं अनुमोदन से रचनाकर्म सार्थक हुआ हार्दिक आभार आपका।
आदरणीय डॉ विजय शंकर सर आपने रचना को समय दिया सराहना की आपका तहेदिल से शुक्रिया
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