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कब-कब दामन में आग लगी कब बरसा पानी कह देंगे (ग़ज़ल 'राज')

२२   २२  २२  २२  २२  २२  २२  २२  

अवशेष चिनारों के तुमसे आफ़ात पुरानी  कह देंगे

हालात वहाँ कैसे बिगड़े खुद अपनी जुबानी कह देंगे

 

 दीवारें धज्जी धज्जी सी हर छत दिखती उधड़ी उधड़ी                     

 आसार लहू के अक्स तुम्हें बेख़ौफ़ कहानी कह देंगे

 

दिखते पर्वत सहमे-सहमे औ गुम-सुम से झरने नदियाँ   

कब-कब दामन में आग लगी कब बरसा पानी कह देंगे  

 

जो साथ जला करते थे कभी आबाद रहे जिनसे आँगन

वो आज अल्हेदा चूल्हे खुद दिल की वीरानी कह देंगे

 

चुपचाप सुलगते शोलों में इतिहास झुलसते देखा है 

तुम राख़ कुरेदोगे जितनी वो पीर रूहानी कह देंगे

 

सब  डाल यहाँ सूखी-सूखी हर फूल पे छाई  मुर्दाई   

मौसम ने कितने जख्म दिए सब उसकी निशानी कह देंगे

 

उम्मीद पे जीना कायम है उम्मीद नहीं तो क्या जीना

जो वक़्त पकड़ कर साथ चले उसे उम्रे रवानी कह देंगे

 (मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 29, 2014 at 11:22pm

बहुत बेहतरीन गजल. आदरणीया राजेश दीदी

उम्मीद पे जीना कायम है उम्मीद नहीं तो क्या जीना

जो वक़्त पकड़ कर साथ चले उसे उम्रे रवानी कह देंगे.............वाह! क्या बात कही. इस शेर पर दिली बधाई स्वीकारें

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