बिच्छू के डंक-से दिन ये खलते रहे
सर्प के दंश-सी रातें खलती रहीं
बंद पलकों में ले दर्द सारा पड़े
नव सृजन-सर्ग की आस पलती रही |
अहं से हृदय काँटा हुआ जा रहा
द्वेष-दावाग्नि घर-बार पकड़े हुए
भोग की यक्ष्मा भीतर घर कर गई
रात-दिन बुद्धि के ज्वर से हम तप रहे
जैसे बढ़ते ज़हरबाद का हो असर
क्रूरता-नीचता मन की बढ़ती रही |
आँख काढ़े-सा शैतान विज्ञान का
पीसकर दाँत आगे खड़ा हो रहा
महामारी-सा रुतबा है आतंक का
डंका छलबल का चारों तरफ बज रहा
बाह्य विभुता का ऊपर से छाया नशा
दर्प-कंदर्प की हाँक चलती रही |
धृष्टता-भ्रष्टता का मुकुट सिर धरे
न्याय को पंख जैसे गरुण का लगा
शान्ति-करुणा की अर्थी उठाते हुए
भीम का कंधा ज्यों हो दुराचार का
धर्म का दर्भ मरुभूमि में जल रहा
होलिका सत्य की नित्य जलती रही |
(मौलिक व अप्रकाशित)
--- संतलाल करुण
Comment
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी,
आप ने गीत-रचना पर गौर किया है, सहृदय आभार ! मात्राओं लेकर मैंने प्रयास किया था, पर शतप्रतिशत मात्रिकता के चक्कर में अपेक्षित भाव तथा उनकी संप्रेषणीयता प्रभावित हो रही थी ! अतएव हल्की छूटों के साथ उन्हें सँजोने का विकल्प अपनाना अधिक ठीक लगा |
आदरणीया सविता मिश्रा जी,
रचना की प्रशंसा के लिए आभार !
मन के ऊहापोह को अभिव्यक्त करती इस प्रस्तुति के कई बिम्ब कुढ़न को सार्थक ढंग से शब्दबद्ध कररहे हैं.
रचना के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय.
एक बात :
पंक्तियों की कुल मात्राओं में छूट ली गयी है. इससे रचनाकार अब बचते हैं.
बहुत खुबसुरत _/\_
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