सारी उमर मैं बोझ उठाता रहा जिनका
उन आल-औलादों की वफ़ा गौर कीजिये
मरने के बाद मेरा बोझ ले के यूँ चले
मानो निजात पा गए हों सारे बोझ से
मैंने समझ के फूल जिनके बोझ को सहा
छाती से लगाया जिन्हें अपना ही जानकर
वे ही बारात ले के बड़ी धूम धाम से
बाजे के साथ मेरा बोझ फेंकने चले
अपने लिए ही बोझ था मै खुद हयात में
अल्लाह ये तेरा भला कैसा मजाक है
ज्योही जरा हल्का हुआ मै मरकर बेखबर
खातिर मै दूसरों के एक बोझ बन गया
लगती थी बोझ जिन्दगी उनके बिना मुझे
यह चाह थी मरकर कभी उनसे गले मिलूँ
मरकर भी बेवफा को जब मै न पा सका
लिल्लाह मेरी मौत मेरा बोझ बन गयी
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
करुण जी
रचना पर समय देने के लिए मै ह्रदय से आभारी हूँ i
मित्र
आपका स्नेह ह्रदय से स्वीकार I
आशुतोष जी
आपका शत-शत आभार i
आदरणीय डॉ. श्रीवास्तव जी,
वृद्धावस्था की बोझिल विसंगति पर हृदयवेधी भावनाएँ इस रचना में आई हैं --
"मरने के बाद मेरा बोझ ले के यूँ चले
मानो निजात पा गए हों सारे बोझ से
मैंने समझ के फूल जिनके बोझ को सहा
छाती से लगाया जिन्हें अपना ही जानकर
वे ही बारात ले के बड़ी धूम धाम से
बाजे के साथ मेरा बोझ फेंकने चले"
...हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , लाजवाब रचना की है आपने , बस वाह वह | जीवन की तल्ख सच्चाई को नंगा कर दिया है | तहे दिल से बधाई स्वीकार करें | और निम्न पंक्तियों के लिए अलग से बधाई --
मरकर भी बेवफा को जब मै न पा सका
लिल्लाह मेरी मौत मेरा बोझ बन गयी - वाह |
आदरणीय गोपाल सर ..इस रचना के माध्यम से जिन्दगी की कटु यथार्थ से आपने रूबरू कराया है ..इस बेहतरीन रचना के लिए तहे दिल बधाई सादर
जीतू जी
आपका हार्दिक आभार i
एक कोरा और कटु सत्य कहती हुई रचना. एक अंतिम सत्य. आदरणीय डा. गोपाल जी इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकारें
नरेन्द्र जी
आपका आभारी हूँ i सादर i
विजय सर
आपका प्रोत्साहन मेरी उर्जा बने i सादर i
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