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जल जल के सारी रात यूं मैंने लिखी ग़ज़ल
दर दर की ख़ाक छान ली तब है मिली ग़ज़ल
मैंने हयात सारी गुजारी गुलों के साथ
पाकर शबाब गुल का ही ऐसे खिली ग़ज़ल
मदमस्त शाम साकी सुराही भी जाम भी
हल्का सा जब सुरूर चढ़ा तब बनी ग़ज़ल
शबनम कभी बनी तो है शोला कभी बनी
खारों सी तेज चुभती कभी गुल कली ग़ज़ल
चंदा की चांदनी सी भी सूरज कि किरणों सी
हर रोज पैकरों में नए है ढली ग़ज़ल
चलती ही जा रही है जमाने से आज तक
मिर्जा तकी के साथ कभी थी चली ग़ज़ल
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..बड़े दिनों बाद काफिआ की गलती से मुक्ति मिली ..बस आपका स्नेह यूं ही मिलता रहे सादर
आदरणीय हरिवल्लभ जी ..रचना पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार
आदरणीय जीतेएन्द्र जी ..आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय करून सर ..आप अग्रजो का स्नेह और आशीर्वाद यूं ही मिलता रहे सादर
आदरणीय गोपाल सर ..बस आपका आशीर्वाद यूं ही मिलता रहे सादर
आदरणीय श्याम नारयन जी .रचना पर आपकी प्रतिक्रिया मुझे हौसला देती है ..हार्दिक धन्यवाद के साथ
आदरणीय नरेन्द्र जी आपकी प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय आशुतोष भाई , बढ़िया ग़ज़ल कही है , सभी अश आर बढ़िया हुए हैं , आपको दिली बधाइयाँ |
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुयी है आदरणीय..
मैंने हयात सारी गुजारी गुलों के साथ
पाकर शबाब गुल का ही ऐसे खिली ग़ज़ल...सुन्दर शेर बधाई आपको.
बेहद खुबसूरत. हर शे'र तारीफ़ के काबिल, दिली बधाई आपको आदरणीय डा. आशुतोष जी
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