2122 2122 2122 २१२
आज ये महफ़िल सजाकर आप क्यूँ गुम हो गये
हमको महफ़िल में बुलाकर आप क्यूँ गुम हो गये
पोखरों को पार करना भी न सीखा है अभी
सामने सागर दिखाकर आप क्यूँ गुम हो गये
लहरों से डरकर खड़े थे हम किनारों पर यहाँ
हौसला दिल में जगाकर आप क्यूँ गुम हो गये
तीरगी के साथ में तूफ़ान भी कितने यहाँ
इक दफा दीपक जलाकर आप क्यूँ गुम हो गये
आपकी ये खामुशी चुभती है नश्तर सी हमें
हमको यूं अपना बनाकर आप क्यूँ गुम हो गये
इक ज़माने बाद ओंठो पे मेरे मुस्कान थी
मीत यूं हमको रुलाकर आप क्यूँ गुम हो गये
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय आशुतोष मिश्र जी,
मार्मिक और हृदयतल तक उतरनेवाली ग़ज़ल है ये, हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ ---
"आपकी ये खामुशी चुभती है नश्तर सी हमें
हमको यूं अपना बनाकर आप क्यूँ गुम हो गये"
गज़ल अच्छी लगी। बधाई।
बहुत खूब आदरणीय डॉ आशुतोष जी बेहतरीन ग़ज़ल बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीया राज जी ..आपकी इस उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से मैं बहुत उत्साहित हूँ .आप का प्रोत्साहन और मार्गदर्शन सतत मिलता रहे इसी कामना के साथ ..सादर प्रणाम के साथ
पोखरों को पार करना भी न सीखा है अभी
सामने सागर दिखाकर आप क्यूँ गुम हो गये----वाह्ह्ह्ह
लहरों से डरकर खड़े थे हम किनारों पर यहाँ
हौसला दिल में जगाकर आप क्यूँ गुम हो गये-----बहुत सुन्दर
आपकी ग़ज़ल बहुत पसंद आई सभी शेर काबिले तारीफ हैं दिली दाद कबूलिये आ० डॉ० आशुतोष जी
आदरणीय डॉ कँवर सर ...आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल बधाई सादर
आदरणीय विजय सर ..रचना आपको पसंद आयी इससे मुझे आत्मसंतोष मिला सादर
आदरणीय गोपाल सर .आपकी प्रतिक्रिया से मुझे हमेशा ही नूतन उर्जा मिलती है .आपका मार्गदर्षन सतत मिलता रहे इसी कामना के साथ ..सादर प्रणाम करते हुए
आदरणीय नरेन्द्र जी .रचना पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभार सादर
आदरणीय हरिवल्लभ जी ..हौसला बढाती आपकी प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
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