धरती से नीले अम्बर तक
बिना किसी व्यवधान
इठलाती तितली सी चंचल
भरती रहे उड़ान
ना कोई सीमा ना कोई बंद
हो कितनी स्वछन्द
ऐ कविता!
कभी करुण रस से आप्लावित
भीगे आखर से बोझिल
कभी डूब शिंगार झील में
आती नख- शिख तक झिलमिल
कभी गरल तू विरह का पीती
कभी नेह मकरंद
हो कितनी स्वछन्द
ऐ कविता!
कभी परों पर लगा बसंती
रंग अबीर गुलाबी लाल
कहीं बिठाती दीये पंगति
पहन हास प्रहास की माल
जीती कभी रौद्र के पलछिन
कभी धर्म के द्वन्द
हो कितनी स्वछन्द
ऐ कविता!
विभत्स, अमेध्य लोक पंक की
हो तुम्ही शुचि निज पंकजा
मूर्त, अमूर्त, वारि से थल तक
फहराती अपनी ध्वजा
मेरी इन साँसों की मीता
ग़ज़ल तुम्ही हो छंद
हो कितनी स्वछन्द
ऐ कविता!
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आ० विजय निकोर जी, आप जैसे संवेदन शील रचनाकार से तारीफ पाने से रचना खुद धन्य हो जाती है बहुत बहुत आभार आपका सादर .
आ० मीना पाठक जी ,उत्साहित करती आपकी प्रतिक्रिया सर आँखों पर |
अति सुन्दर भाव। "कविता" पर यह कविता बहुत ही अच्छी लगी। हार्दिक बधाई, आदरणीया राजेश जी।
बहुत बहुत सुन्दर ..अद्भुत रचना ..हार्दिक बधाई आदरणीया राजेश जी | सादर
प्रिय जितेन्द्र गीत भैया,नवगीत पर आपकी प्रतिक्रिया से उत्साह वर्धन हुआ ,दिल से आभारी हूँ |
इस अद्भुत प्रस्तुति पर आपकी अनुभवी लेखनी को नमन, आदरणीया राजेश दीदी. अति सुंदर लिखा है आपने
आ० डॉ० गोपाल नारायण जी आपकी प्रतिक्रिया मेरा पारितोषिक है ,मेरी लेखनी को नव ऊर्जा देता हुआ आपका अनुमोदन सर माथे पर दिल से बहुत- बहुत आभार आपका सादर |
आ० डॉ० आशुतोष मिश्रा जी ,इसउत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए अभिभूत हूँ मेरी लेखनी को नव ऊर्जा मिली दिल से आभारी हूँ |
सोमेश कौर जी ,आपका दिल से आभार |
आ० डॉ.विजय शंकर जी ,आपका हार्दिक आभार |
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