वक़्त के थपेड़ो में.... खर्च आशिकी अपनी
आज फिर मुहब्बत ने हार मान ली अपनी
लफ्ज़ भी किसी के थे, दर्द भी किसी का था
गैर की ग़ज़ल थी तू... सिर्फ सोच थी अपनी
भूख की गुजारिश में रात भर बिता कर के
बेच दी चराग़ों ने........ आज रौशनी अपनी
आजकल कहीं अपना जिक्र भी नहीं मिलता
वक़्त था कभी अपना, बात थी कभी अपनी
आशना तसव्वुर में........ कुर्बते मयस्सर है
फिर किसी परीवश से जान जा लगी अपनी
आसमान की यारो छत मिली हमें लेकिन
चाँद भी नहीं अपना, चाँदनी नहीं अपनी
दौलते जहां भर की आपको मुबारिक़ हो
मस्त है फ़कीरी में आज जिंदगी अपनी
खूब हम समंदर से....... दुश्मनी निभाते थे
आज क्या रहे हम तो, आज क्या रही अपनी
वक़्त का परिन्दा फिर आसमां उठा लाया
हाय बेबसी अपनी..... और बेक़सी अपनी
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन अशतर:
अर्कान – फ़ाइलुन / मुफ़ाईलुन / फ़ाइलुन / मुफ़ाईलुन
वज़्न – 212 / 1222 / 212 / 1222
Comment
आदरणीय नितिन गोयल जी, ग़ज़ल आपको पसंद आई, मेरे लिए ख़ुशी की बात है. सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. आपने इस मिसरे पर मार्गदर्शन किया है -
आसमा /न की यारों // छत मिली / हमें लेकिन
212/ 1222 / 212 / 1222
इस हिसाब से बह्र तो सही है किन्तु मिसरे की कहन में सुधार की गुंजाइश है -
आस्मां की छत यारों हमको भी मिली लेकिन
आपकी इस्लाह को ही लिया है बस हमें के स्थान पर हमको किया है. सादर
आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी ग़ज़ल पर आपकी इस उत्साहवर्धक और स्नेहपूर्ण आत्मीय टिप्पणी के लिए आभार, हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय मिथिलेश जी आपकी इस ग़ज़ल के सभी शेर उम्दा हैं लेकिन इन दो शेरो के लिए बिशेष रूप से बधाई स्वीकार करें
आसमान की यारो छत मिली हमें लेकिन
चाँद भी नहीं अपना, चाँदनी नहीं अपनी...वाकई ऐसी छत से क्या फ़ायदा
दौलते जहां भर की आपको मुबारिक़ हो
मस्त है फ़कीरी में आज जिंदगी अपनी...यहाँ खोने के लिए कुछ नहीं है और जो पाया है बेहिसाब है बहुत बढ़िया सादर
लफ्ज़ भी किसी के थे, दर्द भी किसी का था
गैर की ग़ज़ल थी तू... सिर्फ सोच थी अपनी
दौलते जहां भर की आपको मुबारिक़ हो
मस्त है फ़कीरी में आज जिंदगी अपनी
भाई जी आपकी माला में से मैंने अपनी पसंद के मोती चुन लिए |सुंदर गज़ल | हर रोज़ नए अर्कान एवं वजन की गज़ल देकर आप इस मंच के वजनदार रचनाकारों में शामिल हैं ,दिली दुआ है की इसी प्रकार आप की बरक्कत हो और आप साहित्य का एक सितारा बनें |
आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी बहुत बहुत आभार, हार्दिक धन्यवाद .... इसका श्रेय इस मंच के गुनीजनों को है ... सादर
आदरणीय मिथिलेश जी बहुत ही सुन्दर ,आपकी रचनाओं मैं निखार निरंतर महसूस होता रहता है ,हार्दिक बधाई आपको !
आदरणीय गिरिराज सर इस प्रयास की सराहना और स्नेह के लिए बहुत बहुत आभार ... हार्दिक धन्यवाद
\\आज क्या रहे हम तो, आज क्या रही अपनी\\ ..... इसमें तो के स्थान पर भी, औ, फिर, अब (अब हम) करने की सोच रहा हूँ . सर निवेदन है कुछ आप सुझाने की कृपा करें ...
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