देखो फिर से हो गया
मुख प्राची का लाल।
रविकर के आते हुआ सुन्दर सुखद प्रभात।
तरुअर देखो झूमते नाच रहें हैं पात।
किरणों ने कुछ यूँ मला इनके गाल गुलाल।
मंद मंद यूँ चल रही शीतल मलय बयार।
प्रकृति सुंदरी कर रही अपना भी शृंगार।।
फ़ैल गया चारो तरफ किरणों का जब जाल।
जन जीवन सुखमय हुआ,समय हुआ अनुकूल।
कोयल भी अब गा रही,खिले खिले हैं फूल।।
ठिठुरे तन को घूप ज्यों शुक को मिले रसाल।
-राम शिरोमणि पाठक
मौलिक।अप्रकाशित
Comment
आ० सौरभ जी
स्वीकार्य है i सादर i
:-))
लीजिये .. आदरणीय, मैं भी तो वही कह रहा था.
सादर.. :-)))
आ 0 सौरभ जी
शुद्ध छान्दसिक रचनाओं में लेश मात्र परिवर्तन का यह मंच हामी नहीं है. संदर्भ लें, ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव. यहाँ किसी छन्द के मूलभूत विन्यास में लेशमात्र परिवर्तन स्वीकार्य नहीं है.-------------------------------- यही मेरा भी स्टैंड है i सादर
नवगीत विधा पर जब काम होता है, या, विभिन्न मर्यादाओं की अन्यान्य रचनाएँ प्रस्तुत होती हैं तो छन्द की मात्र अक्षुण्णता धारण-ध्यान का विषय नहीं रहती, बल्कि शास्त्रीय छन्दों की नैसर्गिक विशालता प्रभावी दिखती------------- बिलकुल सहमत , सादर i
आदरणीय गोपाल नारायनजी, सादर निवेदन है, आप मेरी उक्त टिप्पणी को कृपया पुनः एक बार देख जायें.
मैंभी छन्दों की गरिमा का वैसा ही हिमायती हूँ. जैसा होना चाहिये.
शास्त्रीय छन्द लेकिन असीम जल-स्रोत हैं. जिससे विभिन्न छोटी-मोटी धारायें प्राण पाती हैं, पाती रहती हैं. जितनी जिसकी औकात उतने छन्द-जल से वह प्राणवान.
छन्द के अक्षुण्ण रहने और उससे प्रभावित गीत-नवगीत रचने में सदा से अन्तर रहा है. शुद्ध छान्दसिक रचनाओं में लेश मात्र परिवर्तन का यह मंच हामी नहीं है. संदर्भ लें, ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव. यहाँ किसी छन्द के मूलभूत विन्यास में लेशमात्र परिवर्तन स्वीकार्य नहीं है.
परन्तु, नवगीत विधा पर जब काम होता है, या, विभिन्न मर्यादाओं की अन्यान्य रचनाएँ प्रस्तुत होती हैं तो छन्द की मात्र अक्षुण्णता धारण-ध्यान का विषय नहीं रहती, बल्कि शास्त्रीय छन्दों की नैसर्गिक विशालता प्रभावी दिखती है.
विश्वास है, आप मेरे कहे से आश्वस्त होंगें.
सादर
आओ सौरभ जी
मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि आप मेरी टीप पर भी आते है और मार्गदर्शन करते है i छंद के मीटर पर गीत लिखने की परंपरा नयी नहीं है पर उसे छंद के नाम से जोड़ देना मुझे उचित नहीं लगता क्योंकि छंद अपनी शास्त्रीय मर्यादाओ से बंधा होता है i वहाँ तो हिलना डुलना मना है i मैंने अभी आपके प्रदत्त रूपमाला छंद के आधार पर गीत लिखा है और उसमे स्वतत्रता यह ली है कि अंतरे में चारो पद सम तुकांत रखे है जबकि छंद में यह आजादी नहीं है पर मैं इसे रूपमाला गीत भी नहीं कह सकता नव गीत की तो कहन ही अलग है उसकी यहाँ चर्चा शायद असंगत होगी i कुछ अत्युक्ति हुई हो तो क्षमा करेंगे i सादर i
आदरणीय गोपाल नारायनजी,
भाई राम की प्रस्तुति के शिल्प पर आपकी आपत्ति को संज्ञान लेते हुए कुछ निवेदन कर रहा हूँ.
आदरणीय, आपकी आपत्ति से यह प्रतीत हो रहा है कि आप जैसा विद्वान पाठक ’नवगीत’ जैसी विधा के प्रादुर्भाव और इसके शिल्प पर अधिक मंथन नहीं कर पाया है.
वस्तुतः, नवगीत गीत का ही प्रसंस्कारित प्रारूप है. अतः यह कई-कई प्रचलित छन्दों के टुकड़ों को लेकर ही रचा जाता रहा है.
अभी हाल ही में इसी मंच पर आदरणीय हरि वल्ल्लभ शर्मा जी का ’सार-छन्द’ पर आधारित बहुत ही सुन्दर नवगीत प्रस्तुत हुआ है.
अनेकानेक उदाहरण हैं आदरणीय.
मेरे निम्नलिखित नवगीत ’आज के बाज़ार पर’ को आप देख सकते हैं जो अंतरराष्ट्रीय पत्रिका गर्भनाल के दिसम्बर’१४ के अंक में भी स्थान पा चुका है. पिछले दिनों आयोजित नवगीत महोत्सव’१४ में भी इस गीत को सराहना मिली है. इस नवगीत का मुखड़ा दोहा छन्द का एक पद है तथा अन्तरा की सारी पंक्तियाँ उल्लाला छन्द में निबद्ध हैं.
http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:500863
आदरणीय, बहुतायत नवगीत प्रति पंक्ति १६ मात्राओं में होते हैं, जो, चौपाई छन्द का विन्यास है.
नवगीतों को उर्दू ग़ज़लों-नज़्मों की बहर पर भी बाँधा जाता है.
मेरा निवेदन यही है कि छन्दों या बहरों के ऐसे प्रयोग से उस छन्द या बहर की गरिमा में कोई कमी नहीं आती.
सादर
भाई रामशिरोमणी, एक अच्छी रचना से मन प्रसन्न हुआ. ढेर सारी शुभकामनाएँ.. ढेरसारी बधाइयाँ.
वैसे दोहा-नवगीत न कह कर इसे गीत ही कहें. यह रचना नवगीत की भी श्रेणी में नहीं जायेगी. अगर यह नवगीत भी होता तो ये दोहा-नवगीत कोई सम्बोधन नहीं है. आचार्यजी ने संभवतः प्रस्तुति-कौतुक किया है.
लेकिन, ये श्रृंगार क्या शब्द है ? न मुझे समझ में आया है, न मैं समझना चाहूँगा. आपसब अब भी ऐसी अशुद्धियाँ बर्दाश्त करवाते हैं जिसपर इतनी-इतनी बातें हो चुकी हैं.. !
शुभ-शुभ
राम शिरोमणि जी
आचार्य सलिल जी ने एक नया प्रयोग किया है और नाम दिया है-दोहा नव गीत i यह बात तो दोहा की शास्त्रीय परम्परा से हटकर है इसमें तो कोई संदेह नहीं है i पर प्रायशः प्रयोग ही साहित्य की नयी धारा का निर्माण भी करते है तभी आज् अतुकांत कविता का वर्चस्व बन पाया है i आपने इस नवीन प्रयोग से अवगत कराया i इसके लिए आपको धन्यवाद i संभवतः इस तरीके से गीत का शिल्प भी शास्त्रीय पद्धति पर बन सके i सादर i अच्छी रचना के लिया आपको पुन: बधाई i
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