वो अलसाया-सा इक दिन
बस अलसाया होता तो कितना अच्छा
जिसकी
थकी-थकी सी संध्या
जो गिरती औंधी-औंधी सी
रक्ताभ हुआ सारा मौसम
ऐसा क्यों है.....
बोलो पंछी?
ऐसा मौसम,
ऐसा आलम
लाल रोष से बादल जिसके
और
पिघलता ह्रदय रात का
अपना भोंडा सिर फैलाकर अन्धकार पागल-सा फिरता
हर एक पहर के
कान खड़े है
सन्नाटे का शोर सुन रहे
ख़ामोशी के होंठ कांपते
कुछ कहने को फूटे कैसे ?
किसी पेड़ की टहनी-सा
मैं साथ हवा के हिलडुल लूं
पर
भय से थर-थर काँप रहा हूँ
बाहर-भीतर
एक सरीका
वो वीभत्स,
भयंकर दृश्य रचेंगे.... और भी जाने कितना कुछ
कहाँ किसी का कौन हुआ है?
मेरे भीतर बहने वाला राग
अचानक मौन हुआ है
जलती आँखों को पोछ रहा हूँ
बोलो पंछी......
कुछ तो बोलो
आखिर मैं कहाँ हूँ ?
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संशोधित कविता - तुकांत
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वो अलसाया-सा इक दिन,
बस अलसाया होता तो कितना अच्छा
पर अवसाद मिले अनगिन.
संध्या जिसकी थकी-थकी सी, जो गिरती औंधी-औंधी सी
रंगत नभ की रक्ताभ हुई, ऐसा क्यों है.... बोलो पंछी?
लाल रोष से बादल कितना, और पिघलता ह्रदय रात का
सिर फैलाकर अपना भोंडा, अन्धकार पागल-सा फिरता
कान खड़े हर एक पहर के, सन्नाटे का शोर सुन रहे,
ख़ामोशी के होंठ कांपते, कुछ कहने को फूटे कैसे ?
किसी पेड़ की टहनी-सा झर, साथ हवा के हिलडुल लूं पर
काँप रहा हूँ भय से थर-थर, एक सरीका बाहर-भीतर
वीभत्स, भयंकर दृश्य रचा है, कहाँ किसी का कौन हुआ है?
भीतर था जो, कहाँ छुपा है, राग अचानक मौन हुआ है
जलती आँखे पोछ रहा हूँ
पूछ रहा हूँ, बोलो पंछी...कुछ तो बोलो
आखिर मैं आज कहाँ हूँ ?
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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Comment
आदरणीय प्रधान संपादक महोदय, रचना के अप्रूवल के लिए आभार .
आदरणीय गिरिराज सर बस आपका अनुगामी हूँ .आपकी अतुकांत रचनाएँ पढ़ी तो खुद प्रेरित हुआ हूँ ... आपके द्वारा रचना पर मार्गदर्शन एवं सकारात्मक प्रतिक्रिया और आपका स्नेह सदैव मिलता रहा है हृदय से आभारी हूँ .
आदरणीय खुर्शीद सर, मंच पर आपकी कमी महसूस हो रही थी. आप रचना पर उपस्थित हुए, मेरा मान बढ़ गया. अतुकांत के प्रथम प्रयास पर आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया पाकर धन्य हुआ. आभार . अपनी रचना पर महान साहित्य मनीषियों के नाम देखकर अभिभूत हूँ. हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर आपने सही कहा संशोधित रचना में तुकांत के प्रयास में शब्द विन्यास बदलने से मूल भाव बोझिल हो गया है. आप लोगो के मार्गदर्शन में प्रयास जारी है. इस विधा में समय के साथ और अभ्यास से ही परिपक्वता आएगी. आपके स्नेह और आशीर्वाद से सदैव रचनाकर्म हेतु बहुत उत्साह मिलता है. स्नेह और आशीर्वाद बना रहे इसके लिए सदैव प्रयासरत रहता हूँ.नमन
आदरणीय मिथिलेश भाई , अतुकांत मे भी आपका जवाब नहीं ! बहुत खूब सूरत रचना हुई है । मेरा भी मन ओरिजनल रचना में आ गया । बहुत खूब , बहुत बधाइयाँ ।
ऐसा मौसम,
ऐसा आलम
लाल रोष से बादल जिसके
और
पिघलता ह्रदय रात का
अपना भोंडा सिर फैलाकर अन्धकार पागल-सा फिरता
आदरणीय मिथिलेश जी मूल पाठ वाकई अतुकांत में भावों का अधिक अच्छा निर्वहन कर रहा है |अद्भुत ...... सादर अभिनन्दन
संध्या जिसकी थकी-थकी सी, जो गिरती औंधी-औंधी सी
रंगत नभ की रक्ताभ हुई, ऐसा क्यों है.... बोलो पंछी?
आदरणीय मिथिलेश जी , १६ जनवरी से २३ जनवरी तक विभागीय कामकाज से बैंगलोर गया हुआ था , वापसी के बाद आज ब्लॉग खोला तो आपकी संशोधित रचना पढ़ने को मिली | मैं मूल का तो पाठ नही कर पाया किंतु यह काफ़ी अच्छी लगी है |अतुकांत में मैंने केवल आदरणीय धूमिल जी तथा नागार्जुन जी को ही दिल के करीब पाया है तथापि आपकी रचना में आदरणीय शमशेरबहादुर सिंह और आ. कैलाश वाजपई सी अकुलाहट और उदिग्नता झलक रही है |
वीभत्स, भयंकर दृश्य रचा है, कहाँ किसी का कौन हुआ है?
भीतर था जो, कहाँ छुपा है, राग अचानक मौन हुआ है
वाह.. राग का मौन हो जाना अच्छा बिम्ब है |सादर अभिनन्दन
आ ० वामनकर जी
आपकी सशोधित कविता बोझिल सी लगी i मूल मूल ही होता है i आप प्रयास करते रहे लेखनी खुद आपको सिखाएगी i हां यह ध्यांराहे अतुकांत में भी किंचित तुकांतता होती है i
सादर i
जी, जी बिलकुल सही है !
आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए आभार, मूल रचना हुई थी और संशोधित रचना केवल शब्द विन्यास बदल कर बनाई गई है.
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