यह बचपन ,बचपन मैं जवान हो गया
जानता नहीं बचपन ,बचपन क्या चीज है
नहीं जानता है यह हंसना -खेलना
नहीं जानता यह रूठना मनाना,
जानता नहीं यह माँ बाप का प्यार
सीखा नहीं क्या होता है बचपन का दुलार
नहीं सीखा इसने पढ़ना लिखना ,
हाँ सीख लिया है जिंदगी को पढ़ना
जानता हैं चौबीसों घंटे मेहनत करना
रोटी कपडा मिलता है इसे इनाम
यह बचपन,बचपन मैं जवान हो गया
अब यह जवान हो गया है
जवान होते होते जिसने अपनी जवानी ,
बचपन मैं ही गिरवी रख दी है
अब यह जवानी बुढ़ापे पर भार है
यह मात्र कंकालों का जोड़ तोड़ है
भूक व डर की हवा चलने पर अब भी हिलता है
यह एक जवान है
इसका बुढ़ापा एक जीने की औपचारिकता व मौत का इंतज़ार है
इसे जिंदगी से भय व मौत से प्यार है
यह एक बुझा हुवा अंगारा है
फिर भी यह मुक्ति का अंतिम चरण तो है
मौलिक व अप्रकाशित
श्याम मठपाल
Comment
मरते बचपन की और इसरा करती इस सुन्दर रचना के लिए बधाई .
Priya jitendra ji,
Kavita aapko pasand aai . Dhanyabad
युवास्था का संघर्ष व् गंभीरता ही , पुरे जीवन का परिणाम होता है. जो बृद्धावस्था में मिलता है जब इंसान असक्त होता है. बधाई श्याम जी
Aadarniya Dubey Sb.
Bahut dhanyabad. Aapko rachna pasand aai.
Aadarniya,
Wamankar Sb.Bahut dhanyabad.
आदरणीय श्याम मठपाल जी जिंदगीनामा पर सुन्दर रचना बधाई आपको ! प्रयास जारी रखे.
बचपन, जवानी, बुढ़ापा आसक्ति
तरे जब भी व्यक्ति, वही तो है मुक्ति
आदरणीय श्याम मठपाल जी सुन्दर प्रयास ,सुन्दर रचना बधाई आपको !
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