2122—2122—2122—212 |
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खेत की, खलिहान की औ गाँव की ये मस्तियाँ |
कितनी दिलकश हो गई है बाजरे की बालियाँ |
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वो कहन क्यूं खो गई जो महफिलों को लूट लें |
हर बड़ी बकवास पर अब बज रही है तालियाँ |
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आप इतना तो बताएं क्या सियासतदार है? |
आपकी मुस्कान पे भी आ रही है मितलियाँ |
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खींच तानी से भला किसको हुआ है फायदा |
किस तरह बरसे बता गर लड़ पड़ी जब बदलियाँ |
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मंजिले उसने बताई परबतों के पार है |
बीच में अक्सर लुभाती है महकती वादियाँ |
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ख्वाहिशे उनकी भला क्योंकर समंदर हो गई |
ताज उनकों चाहिए औ ताज पे भी कलगियाँ |
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ये मशालें बुझ रही 'मिथिलेश' अबके खुद जलो |
और अंगारों से फिर उठने दो कातिल बिजलियाँ |
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर |
Comment
बादलों को लेकर रची बहुत उम्दा और भावपूर्ण गजल रचना वाह - विशेष कर -
खेत की, खलिहान की औ गाँव की ये मस्तियाँ |
कितनी दिलकश हो गई है बाजरे की बालियाँ |
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वो कहन क्यूं खो गई जो महफिलों को लूट लें |
हर बड़ी बकवास पर अब बज रही है तालियाँ |
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खींच तानी से भला किसको हुआ है फायदा |
किस तरह बरसे बता गर लड़ पड़ी जब बदलियाँ |
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मंजिले उसने बताई परबतों के पार है |
बीच में अक्सर लुभाती है महकती वादियाँ } एक अश'आर में मित्लिया कर अर्थ मुझे नहीं मालूम | हार्दिक बधाई आपको श्री मिथिलेश वामनकर जी |
शुक्रिया आ. मिथिलेश भाई , सलाह पर गौर फरमाने के लिये , अब शे र सही लग रहा है । बधाई ॥
आदरणीया राजेश कुमारी जी एवं आदरणीय गिरिराज सर, ' बदलियो में' ने सारी बात स्पष्ट कर दी.... मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार ... त्रुटी सुधारता हूँ सादर
तन गई जो बदलियाँ कर सकते हो भाव नहीं बदलेगा
आपके प्रतिउत्तर से मेरी नजरों में आपके सम्मान का स्नेह का इजाफ़ा हुआ है मिथिलेश जी दिली शुभकामनायें प्रेषित करती हूँ |
आ० गिरिराज जी ने और बात स्पष्ट कर दी है ---ठन गई जो बदलियाँ कभी नहीं हो सकता ----ठन गई जो बदलियों की (उससे या किसी से भी )या ठन गई बदलियों और उनके बीच ...ठन गई बदलियों में -----इस तरह से आप ठन शब्द यूज कर सकते हैं
खूब गरजी, पर न बरसी, ठन गई जब बदलियाँ ---- आदरणीय मुझे लगता है जब तक बदलियो में ठन गई नही कह पायेंगे , अर्थ अधूरा लगेगा । या -- लड़ पड़ीं जब बदलियाँ -- कहने में काम चले तो आप ये भी कह सकते हैं ।
आदारणीय मिथेश भाई , एक और अच्छी गज़ल के लिये दिली मुबारक बाद कुबूल करें ॥ आदरणीया राजेश जी की सलाह से मै भी सहमत हूँ , गौर कीजियेगा ॥
आदरणीया राजेश कुमारी जी ग़ज़ल आपको पसंद आई यही मेरे लिए बड़ी बात है. आपका स्नेह और मार्गदर्शन हमेशा से मिलता रहा है, आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाओं और मार्गदर्शन का ही परिणाम है कि मेरे जैसा तुकबंदी करने वाला, धीरे धीरे ग़ज़ल कहना सीख रहा है. आपके सुझाव मेरे लिए सदा अमूल्य रहे है, और जहाँ तक माइंड करने की बात है तो आप भी जानती है अभी उस लायक नहीं हुआ हूँ कि गुनीजनों के आशीष को माइंड करूं. आपकी प्रतिक्रिया का आशीष ही मिल जाना मेरे लिए बड़ी बात है. आपके स्नेह और सराहना के लिए सदैव आभारी ही होता हूँ. आपने जिन अशआर पर निर्देशित किया है उसमें पहला- खींच तानी से भला किसको हुआ है फायदा |
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किस तरह बरसे बता गर ठन गई जो बदलियाँ यहाँ खींचा तानी अर्थात मतभेद से तात्पर्य बदलियों के आपसी मतभेद से है और ठन गई जो बदलियाँ का तात्पर्य बदलियाँ आपस में ठन गई है. अर्थात आपसी मतभेद से किसी को लाभ नहीं होता जैसे बदलियाँ आपस में ठन जाती है तो फिर सिर्फ गरजती है लेकिन मूल धर्म बरसना है पर बरसती नहीं. शायद मैं अपने भावों को सही शब्द नहीं दे पाया इसलिए मूल भाव उभर नहीं पाया. पुनः प्रयास निवेदित है -
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अब इस शेर आपका मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है---
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आदरणीया छाया शुक्ला जी रचना पर सराहना एवं उत्साहवर्धक सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार, हार्दिक धन्यवाद
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