बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
माना मिट जाते हैं अक्षर कलम नहीं मिटती
मारो बम गोली या पत्थर कलम नहीं मिटती
जितने रोड़े आते उतना ज़्यादा चलती है
लुटकर, पिटकर, दबकर, घुटकर कलम नहीं मिटती
इसे मिटाने की कोशिश करते करते इक दिन
मिट जाते हैं सारे ख़ंजर कलम नहीं मिटती
पंडित, मुल्ला और पादरी सब मिट जाते हैं
मिट जाते मज़हब के दफ़्तर कलम नहीं मिटती
जब से कलम हुई पैदा सबने ये देखा है
ख़ुदा मिटा करते हैं अक़्सर कलम नहीं मिटती
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया महिमा जी
बहुत बहुत शुक्रिया ख़ुर्शीद जी
शुक्रिया हरि प्रकाश जी
शुक्रिया अजय जी
शुक्रिया मिथिलेश जी
आदरणीय गोपाल नारायण जी एवं कृष्ण मिश्रा जी, मैं आप लोगों का पूरा सम्मान करता हूँ और आप अगर मुझसे या मैं आपसे असहमत रहूँ तो इस सम्मान में कहीं कोई अंतर नहीं आएगा। "ईश्वर के दफ़्तर" से यदि बात स्पष्ट नहीं हो रही है तो मैं "धर्मों के दफ़्तर" या "मज़हब के दफ़्तर" कर देता हूँ। सादर
जितने रोड़े आते उतना ज़्यादा चलती है
लुटकर, पिटकर, दबकर, घुटकर कलम नहीं मिटती
इसे मिटाने की कोशिश करते करते इक दिन
मिट जाते हैं सारे ख़ंजर कलम नहीं मिटती...... बहुत बढि़या... कलम की ताकत को बखूबी बयां किया आ. धर्मेन्द्र जी, हार्दिक बधाई आपको
जितने रोड़े आते उतना ज़्यादा चलती है
लुटकर, पिटकर, दबकर, घुटकर कलम नहीं मिटती
इसे मिटाने की कोशिश करते करते इक दिन
मिट जाते हैं सारे ख़ंजर कलम नहीं मिटती
आदरणीय धर्मेंदर कुमार सिंह 'सज्जन' जी ,उम्दा ग़ज़ल हुई है |ढेरों दाद कबूल फरमावें |कोट किये अशआर 'कलम की ताकत को बखूबी दर्शा रहें हैं |हार्दिक बधाई |सादर अभिनन्दन |
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