बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२
रूह को सब चाहते हैं जिस्म दफ़नाने के बाद
दास्तान-ए-इश्क़ बिकती खूब दीवाने के बाद
शर्बत-ए-आतिश पिला दे कोई जल जाने के बाद
यूँ कयामत ढा रहे वो गर्मियाँ आने के बाद
कुछ दिनों से है बड़ा नाराज़ मेरा हमसफ़र
अब कोई गुलशन यकीनन होगा वीराने के बाद
जब वो जूड़ा खोलते हैं वक्त जाता है ठहर
फिर से चलता जुल्फ़ के साये में सुस्ताने के बाद
एक वो थी एक मैं था एक दुनिया जादुई
और क्या कहने को रहता है इस अफ़साने के बाद
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको हार्दिक बधाई! |
तह-द-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आ. वन्दना जी
बहुत बहुत शुक्रिया आ. rajesh kumari जी
शुक्रिया जनाब SHARIF AHMED साहब
बहुत बहुत शुक्रिया आ. umesh katara जी
बहुत बहुत धन्यवाद आ. Hari Prakash जी
बहुत बहुत धन्यवाद Shyam Mathpal जी
बहुत बहुत शुक्रिया आ. गोपाल नारायन जी
शुक्रिया आ.मिथिलेश वामनकर जी
बहुत बहुत धन्यवाद आ. Vijai Shanker जी
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