ए-हुस्न-जाना..
दिल नही रहा अब तेरा दीवाना...
अब मुझको आया कुछ आराम है।
कि तेरे सिवा जहाँ में और भी बहुत काम है।
ए-हुस्न-जाना..
दिल अब तुझसे बेजार है..
हुस्नो-इश्क जबसे बना व्यापर है।
हूँ जिसका मै सिपहसलार बेकार वो दिल का रोजगार है।
ए-हुस्न-जाना..
दूंढ़ ले अब कोई नया ठिकाना...
मालूम मुझको तेरा मकाम है।
के तेरे सिवा जहाँ में और भी बहुत काम है।
ए-हुस्न-जाना..
छोड़ कफ़स-ए-शम्मा-परवाना...
दुनिया-ए-रू में आ देख क्या आराम है।
मै नहीं! तू नहीं! दर नहीं! हरम नहीं!
कोई है,सब उसी के नाम हैं।
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मौलिक व् अप्रकाशित (c) जान गोरखपुरी
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Comment
रचना पर आपकी सार्थक प्रतिकिया पाकर मन हर्षित हुआ!तहेदिल से शुक्रिया आदरणीय! निर्मल नदीम जी!
रचना के अनुमोदन के लिए तहेदिल से शुक्रिया आदरणीय vijai shanker जी!
हौसलाफजाई के लिए बहुत बहुत आभार! आदरणीया प्रतिभा जी!
भाई महर्षि बहुत बहुत शुक्रिया!सस्नेह!
आ० गोपाल नारायण सर!आपकी उपस्थिति पाकर रचनाकर्म सार्थक हो जाता है!बहुत बहुत आभार गुरुवर!
प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आ० shyam mathpal जी.
सराहना के लिये बहुत बहुत आभार! आदरणीय Shyam Narain Verma जी!
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