१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
इशारों को शरारत ही कहूं या प्यार ही समझूं
कहूं मरहम इसे या खंजरों का वार ही समझूं
कशिश बातों में तेरी अब अजब सी मुझ को लगती है
तेरी बातों को बातें ही या फिर इकरार ही समझूं
वो डर के भेडियों से आज मेरे पास आये हैं
कहूं हालात इसको या कि मैं ऐतवार ही समझूं
तेरी नजरों ने कैसी आग सीने में लगाई है
तुझे कातिल कहूं मैं या इसे उपकार ही समझूं
पड़े ओंठों पे ताले पलकें उठती और गिरती हैं
ये मेरी जीत है या इस को अपनी हार ही समझूं
नहीं खिड़की पे आती आजकल क्या बात है बोलो
यूं शर्माती हो तुम या मैं इसे इनकार ही समझूं
है पिघली बर्फ दिल की आँख से आंसू लगे बहने
सहेजूँ इनको मोती मान या बेकार ही समझूं
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत सुन्दर ....सादर
वो डर के भेडियों से आज मेरे पास आये हैं
कहूं हालात इसको या कि मैं ऐतवार ही समझूं
डा.. आशुतोष मिश्रा जी ,
सुंदर रचना के लिए बधाई .
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