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खुदा तेरी ज़मीं का जर्रा जर्रा बोलता है
करम तेरा जो हो तो बूटा बूटा बोलता है
किसी दिन मिलके तुझमें, बन मै जाऊँगा मसीहा
अना की जंग लड़ता मस्त कतरा बोलता है
बिछड़ना है सभी को इक न इक दिन, याद रख तू
नशेमन से बिछड़ता जर्द पत्ता बोलता है
हुनर का हो तू गर पक्का तो जीवन ज्यूँ शहद हो
निखर जा तप के मधुमक्खी का छत्ता बोलता है
बहुत दिल साफ़ होना भी नही होता है अच्छा
किसी का मै न हो पाया,ये शीशा बोलता है
गले से भी लगाया बज्म-ए-मय में भी बिठाया
किसी ने सच कहा है दोस्त,कपड़ा बोलता है
सुनो दीमक अहं की चट है जाती आदमी को
युं गर हो शख्स कम, ज्यादा तो ओह्दा बोलता है
हुई बारिश घरौंदे साथ बुनकर तोड़ बैठे
वही दिन थे सुनहरे दिल का बच्चा बोलता है
बड़े खुदगर्ज पत्थर लोग़ रहते हैं जमीं पर
फ़लक से टूटता बेकल सितारा बोलता है
**मौलिक व् अप्रकाशित**
Comment
आदरणीय शिज्जू सरजी!रचना पर प्रशस्ति के लिए आभार! आ० आपके सुझाव निश्चय ही गज़ल में चार चाँद लगा रहे है,ऐसी गजल पर पकड़ तो समय के साथ ही आती है,समय के साथ सीखते हुए, मेरा कहन भी और दुरुस्त होता जायेगा ऐसी मुझे उम्मीद है..बस आप सभी गुनीजनो का आशीर्वाद बना रहे!
कुछ बातें अपनी ओर से मै यहाँ रखना चाहूँगा.......सर! मेरा खुद का मानना है कि रचना में आम भाषा के अनुरूप जहा तक हो सके,लोगो से सीधे तौर पर जुड़ने वाले सरल शब्दों,और सहजता से दिल में उतरने वाले कहन का प्रयोग करना चाहिए!जिससे आम से आम आदमी उस से जुड़ सके!समझ सके!.इसीलिए मै गूंढ से गूंढ बात को भी सीधे तौर पेश करने में विश्वास करता हूँ! बहर,वज्न
आदि से मेरा परिचय नया नया है इसलिये बात पूरी तरह से बन नही पा रही है, पर अपनी ओर से मै पूरी तरह समर्पित होकर लगा हुआ हूँ!
हमेशा साफगो होना मुनासिब तो नहीं "जान"
किसी का मै न हो पाया,ये शीशा बोलता है------बहुत ही लाजव़ाब, शेर बना दिया है इसे आपने सर! इसमें कोई संदेह नही है! आभार!
मै इस शेर के माध्यम से अपनी दो बात रखना चाहूँगा--
एक तो ये कि----''बहुत दिल साफ़ होना भी नही होता है अच्छा'' और हमेशा साफगो होना मुनासिब तो नहीं "जान" में
मेरे ख्याल से ''बहुत दिल साफ़ होना भी नही होता है अच्छा'' आसानी से समझ में आने वाला, सीधे जुबान पे चढ़ने वाला है! हालांकि इसके कहन में और हुस्न की दरकार है!
दूसरी बात ये के----हमेशा साफगो होना मुनासिब तो नहीं "जान"
किसी का मै न हो पाया,ये शीशा बोलता है
इस कहन में मेरी बात के भटकने का जोखिम भी है--- '' इस कहन में ये बात ज्यादा ध्वनित हो रही है के ''मै किसी का नही हो पाया ये मुझसे शीशा बोल रहा है'' जबकि मै ये कहना चाहता हूँ के...''शीशा सामने के व्यक्ति को हुबहू जैसा वो है वैसा ही दिखाता है,और इसी खूबी/खामी के कारण जो उसके सामने आता है वह उसी का रूप ले लेता है,यानि वह किसी का नही हो सका! इस तरह से यह भाव रखने की कोशिश की है कि व्यक्ति को,सामने वाले के अवगुण को छिपाना भी सीखना चाहिए,बहुत मीन-मेख निकलने वाला और आलोचना करने वाला किसी का भी प्रिय नही बन पाता!''
हालांकि एक शेर के बहुत अर्थ निकलते है,बहुत कुछ अनकहा छोड़ा जाता है,पर कहने वाले को ये भी ध्यान रखना चाहिए कि जो वह कहना चाह रहा है वह लोगों तक जरूर पहुचें, और जो उसने अनकहा छोड़ा है,वह समझने वालों तक पहुच जाये तो शेर की और शायर महत्ता!
आदरणीय, गिरिराज जी, बहुत बहुत आभार!
जाने कैसे इतनी बड़ी चूक हो गयी... सुधार करते समय जाने कैसे ये मिसरा दिमाक से ही उतर गया!!
सुधार करके प्रस्तुत करता हूँ!
कृष्ण मिश्रा जी ग़ज़ल पर आपकी मेहनत मुतमईन करती है बाबह्र तो आप लिख लेते हैं लेकिन रचना को थो़ड़ा समय देंगे तो गज़लियत भी आ जायेगी। इस ग़ज़ल में भी सुधार की बहुत गुंजाइश है मसलन
बिछड़ना है सभी को इक न इक दिन, याद रख तू
नशेमन से बिछड़ता जर्द पत्ता बोलता है
सभी को इक न इक दिन तो बिछड़ जाना है ऐ दोस्त
शजर से टूट के वो ज़र्द पत्ता बोलता है
बहुत दिल साफ़ होना भी नही होता है अच्छा
किसी का मै न हो पाया,ये शीशा बोलता है
हमेशा साफगो होना मुनासिब तो नहीं "जान"
किसी का मै न हो पाया,ये शीशा बोलता है
कुछ फर्क तो दिखा ही होगा आप समय दें तो हर शेर आपकी ग़ज़ल का निखर के सामने आयेगा
आ. कृष्णा भाई , सर कहने के न तो मैं योग्य हूँ न ही इस मंच मे कोई गुरू शिष्य मान कर सिखता है , सब आपस मे एक दूसरे से सीखते हैं , अतः मित्र, बड़े भाई या आदरणीय ही काफी है । अगर इन मे से कोई संबोधन दें तो खुशी होगी , और काफी भी है ॥
आदरणीय कृषणा भाई , अच्छी गज़ल हुई है , दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें ॥
यूँ होता है/ तो बंदा कम / ज्यादा ओह्दा बो/ लता है -- ये मिसरा बेबह्र है , सुधार लीजियेगा ॥
आ० गिरिराज सर!के मार्गदर्शन के बिना ये गज़ल संभव न हो पाती! आ० आपके संबल का सदैव आभारी हूँ!
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