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ग़ज़ल -- अंततः विदा पाई (मिथिलेश वामनकर)

212---1222---212---1222

 

झूठ भी नहीं कहते, सत्य भी नहीं कहते

दो नयन तुम्हारे पर, मौन भी नहीं रहते

 

प्रीत का कहो कैसे, आप सुख उठाएंगे

प्रेम वेदना में जब, रंच भी नहीं दहते

 

यश तनिक घटाता हैं, प्रेम की निकटता को 

वो नदी हुए जब से, नैन से नहीं बहते

 

जीव ने जरा तन से, अंततः विदा पाई

आप ही कहें कब तक, कष्ट हम भला सहते

 

दर्प से कुटुम्बों को, दंश ही मिले समझो

इस अहं की टक्कर में, घर सदा मिले ढहते

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 25, 2015 at 5:11am

आदरणीय गिरिराज सर, सही कहा आपने. पुनः प्रयास करता हूँ. हार्दिक आभार सर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 14, 2015 at 8:21am

आदरणीय मिथिलेश भाई , मुझे दुख है कि दौलतें के बदले मै कोई शब्द 212 मात्रा मे नहीं सुझा पाया जो सानी के भावों को तार्किक रूप से संतुष्ट कर पाये , लेकिन बदलाव के बिना शे र सही नहीं होगा ऐसा मुझे लगता है , आपभी सोचिये , मै भी सोचता हूँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 14, 2015 at 7:17am
आदरणीय कृष्ण भाई हार्दिक आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 14, 2015 at 7:16am
आदरणीय गिरिराज सर मार्गदर्शन और सराहना के लिए आभार।
मतले पर आपका सुझाव उचित है
दौलते घटाती है के स्थान पर पहले तरक्कियां भी सोचा था मगर वज़्न 1212 हो रहा है फिर अर्थ-यश घटाते है किया उसे बदलकर दौलते किया।दंश वाले शेर में सुझाव सही है। जीव वाले शेर में कष्ट सहते को कष्टों को सहते मानकर लिया है। आपके मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ। नमन

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 14, 2015 at 7:04am
आदरणीय जितेंद्र जी हार्दिक आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 14, 2015 at 7:03am
आदरणीय डॉ विजय शंकर सर हार्दिक आभार।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on April 14, 2015 at 7:02am
आदरणीय समर कबीर जी सराहना के लिए आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 14, 2015 at 7:01am
आदरणीय शिज्जु भाई जी सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए आभार
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 13, 2015 at 10:50pm

एक और लाजव़ाब गज़ल पर!ढेरों दिली दाद कबूल करें आदरणीय! मतले ने तो दीवाना बना दिया हमें!गज़ब!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 12, 2015 at 9:18pm

आदरणीय मितिलेश भाई , अच्छी गज़ल हुई है , दिली मुबारक बाद स्वीकार करें ॥

दो नयन तुम्हारे क्यूं, मौन भी नहीं रहते -  दो नयन तुम्हारे पर, मौन भी नहीं रहते  (क्यूँ कहने से , मौन रह नही सकते कहना सही होगा

दौलतें घटाती हैं, प्रेम की निकटता को    

वो नदी हुए जब से, नैन से नहीं बहते    -- उला मे  दौलतें  घटातीं है  के बाद सानी में  , वो नदी हुये कम से कम मुझे सही नही लग रहा है  

तरक्कियाँ घटाती हैं, प्रेम की निकटता क्या ?

वो नदी हुए जब से, नैन से नहीं बहते     -----  सोच के देखियेगा

जीव ने जरा तन से, अंततः विदा पाई

आप ही कहें कब तक, कष्ट को भला सहते     -- मै मुतमइन नहीं हूँ , पर  उला में   जीव  -  कहने के बाद   सानी में - सहता कहना पड़ेगा शायद  --    

दर्प से कुटुम्बों को, दंश ही मिला समझो          ------  दर्प से कुटुम्बों को, दंश ही मिले समझो  

इस अहं की टक्कर में, घर सदा मिले ढहते 

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