सब कुछ
है तेरा
तुझ पर, तेरे कारण ही
और तेरे ही लिए हैं
अपने दामन में पाले हैं तूने
समान, असमान भाव से
कांटे भी, फूल भी
देव और दानव
जल भी तेरा, थल भी
मरुस्थल और तेरे ही है पर्वत
तेरी ही नदियाँ
तेरा ही आश्रय है, सागर को
अश्विन से फाल्गुन तक
सिकुड़ती है, तू
ज्येष्ठ की दहक में
तपती और पिघलती रही
अथाह सहनशीलता है, तुझमे
इस तरह सिकुड़ने और
पिघलने के बाद
बस! एक अपेक्षा है तेरी
कोई बरस जाए तुझ पर
भर दे, तुझमें
इतनी तृप्ति और नमी
कि, तू संतृप्त होकर
बिखेर दे सारे जहाँ में
खुशियाँ ही खुशियाँ
सर्वस्व है तू
फिर भी, हमेशा की तरह
इस वर्ष भी
अपेक्षा है तुझे...!
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
आदरनीय जीतेन्द्र भाई , एक अलग ही भाव में बहुत खूबसूरत रचना हुई है , आपको हार्दिक बधाई रचना के लिये ॥
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