२१२२ १२१२ २२
साफ़ कहने में है सफ़ाई क्या ?
कौन समझे पहाड़-राई क्या ?
चाँद-सूरज कभी हुए हमदम ?
ये तिज़ारत है, ’भाई-भाई’ क्या ?
सब यहाँ जी रहे हैं मतलब से
मैं भी जीयूँ तो बेवफ़ाई क्या ?
चाँद है वो, मगर सितारों की
उसने फिर से सभा बुलाई क्या ?
क्या अदब ? लाभ पढ़, मुनाफ़ा लिख
गीत कविता ग़ज़ल रुबाई क्या ?
मुट्ठियों की पकड़ बताती है
चाहती है भला कलाई क्या !
खुदकुशी के हुनर में माहिर हूँ
कामना क्या, मुझे बधाई क्या ?
लग गया खूँ अगर किसी मूँ को,
फिर तो मालूम है, दवाई क्या !
***************
-सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
निः संदेह ओबीओ पर जिस तरह खुल कर चर्चा होती थी / है .. यह खुला वातावरण ही इस मंच को विशेष बनाता है ...
अन्यथा फेसबुक के ग्रुप्स में भी हज़ारों सदस्य जोड़ना १ दिन की मेहनत भर है ...
हाँ, आपकी ग़ज़लों पर तो आता ही रहूँगा ....
एक बात जो होनी चाहिये.. वह इस ग़ज़ल के संदर्भ में इस मंच पर नहीं हुई है. वह है बिम्बों के उपयोग पर बात.
यदि बिम्ब का सार्थक प्रयोग रचनाकार ने नहीं किया तो कथ्य विन्दुवत संप्रेषित नहीं हो पाते. इस विन्दु पर आदरणीय एहतराम इस्लाम से बहुत ही सार्थक तथ्यों को जाना. आदरणीय एहतराम साहब का कहना क्या ही तथ्यपरक रहा है !
शेर है -
चाँद है वो, मगर सितारों की
उसने फिर से सभा बुलाई क्या ?
आपके कहे के अनुसार चाँद और सितारे दोनों एक ही विस्तार में हुआ करते हैं. ऐसे में चाँद को सितारों की सभा बुलानी नहीं पड़ती. सितारे तो चाँद के साथ ही हुआ करते हैं. इस हिसाब से इस शेर के बिम्ब उस तरह से तथ्य को प्रस्तुत नहीं कर रहे, जिसका इंगित मुखिया बन गये व्यक्ति के नये-नये व्यवहार को ज़ाहिर कर सके. बात अकाट्य है. यानी, ऐसे में बिम्ब की दशा में बदलाव आवश्यक है.
रचनाओं में बिम्ब और व्यंजनाओं को प्रयुक्त करने के क्रम में हम स्वयं बहुत सचेत और तार्किक रहा करते हैं. अपनी ही नहीं साथियों की रचनाओं में भी बिम्ब के प्रयुक्त विन्दुओं पर हम पैनी नज़र रखते हैं. लेकिन कहते हैं न, कई बार सोच-समझ कर निवेदित किया गया संवाद भी गल्प की श्रेणी में चला जाता है. चाँद और सितारों का बिम्ब इस शेर के संदर्भ चाहे जितना तोषकारी हो, तार्किक नहीं है. इस हिसाब से यह शेर इंगित तथ्य को सम्पूर्णता में अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा.
// साहित्य क्षेत्र में "प्रयोग" को नकारना "हास्यास्पद" है मगर प्रयोग की सफलता और असफलता इस बात से निर्धारित होती है कि रचना इससे भूषित हो रही है या दूषित हो रही है. यदि भूषित होती है तो प्रयोग सफल है, यदि दूषित होती है तो प्रयोग असफल है. और इसका निर्धारण प्रयोगकर्ता स्वयं नहीं कर सकता ....//
अवश्य.. अकाट्य..
//जनाब एहतराम इस्लाम ने खुद अपने प्रयोग को कभी सफल घोषित नहीं किया ... उनके प्रयोगों से रचना आभूषित हुई है यह बात उनके पाठकों और समीक्षकों ने तय की है //
आदरणीय एहतराम साहब ही नहीं, कोई विवेकी व्यक्ति अपने प्रयोगों को स्वयं सफल नहीं कहता. वह सिर्फ़ अपनी बात निवेदित करता है. पाठकों और समीक्षकों की ही राय पर ही कोई तथ्य स्थापित होते हैं. मेरी बातें सदा सापेक्षता पर ही निर्भर करती है. अन्यथा एक-दो लोग ऐसे भी हैं, जिनसे हमें स्वयं के कहे पर अडिग रहने का दोष मिला है. जबकि ये ओबीओ का मंच जानता है कि और यहाँ के सदस्य जानते हैं, कि हमने जो कुछ सीखा है, सबकुछ तिल-तिल कर यहीं, इसी पटल पर, सबके बीच सीखा है. अपने को सुधार-सुधार कर ही सीखा है. लेकिन इस सुधार के पूर्व अपनी बातें कहने का अधिकार अवश्य सभी के पास है. अपनी कही बात यदि निर्मूल हुई तो इसी मंच पर हमने खूब नकारा है. लेकिन उससे पूर्व हरकुछ को कहना और जानना जिज्ञासा कहलाती है जो सीखने की तीव्रता को बहुगुणित करती है.
फिर, पाठक और समीक्षक बहुआयामी होते हैं. हमने यह भी जाना है.
//इस वक्तव्य को सुरक्षित कर लिया है, भविष्य में आपकी ग़ज़ल पर कुछ कहने से पहले इसे पढ़ लिया करूंगा, तभी कुछ कहूँगा //
यह तो आपके समीक्षक को सोचना होगा कि वह रचना और साहित्य के प्रति कितना जागरुक, आग्रही और दायित्वपूर्ण है. अर्थात, आप इस हिसाब से प्रस्तुत हुई हर रचना पर आयेंगे.
शुभ-शुभ
/ यदि मैं इन तीनों के प्रति बनी-बनायी लकीर पर बना रहता तो आजतक कुछ न लिख पाता. किसी रचनाकार को किस लिहाज और भाषा में लिखना है, क्या ये समीक्षक या पाठक बतायेगा ? ऐसा अधिकार तो किसी को नहीं है. नहीं तो, अन्यान्य लेखकों और रचनाकारों की विभिन्न भाषा-शैलियों की आवश्यकता ही क्या है ? इस परिप्रेक्ष्य में कहना अन्यथा न होगा कि व्याकरण के लालित्य और सामर्थ्य का प्रयोग रचनाकार नहीं करेगा तो कौन करेगा ? यदि कोई बनी बनायी लकीर पर नहीं चलता तो उसकी रचना में किसी पाठक को प्रयोग ही प्रयोग दिखेगा. उसे स्वीकारना या न स्वीकरना पाठक के स्वर्जित ज्ञान और अध्ययन पर निर्भर करता है. यह उस पाठक की व्यक्तिगत परेशानी भी है. //
एहतराम साहब के इस कहे का हार्दिक स्वागत है मगर इस वक्तव्य पर भी यही बात लागू होती है कि ....
साहित्य क्षेत्र में "प्रयोग" को नकारना "हास्यास्पद" है मगर प्रयोग की सफलता और असफलता इस बात से निर्धारित होती है कि रचना इससे भूषित हो रही है या दूषित हो रही है
यदि भूषित होती है तो प्रयोग सफल है, यदि दूषित होती है तो प्रयोग असफल है
और इसका निर्धारण प्रयोगकर्ता स्वयं नहीं कर सकता ....
जनाब एहतराम इस्लाम ने खुद अपने प्रयोग को कभी सफल घोषित नहीं किया ....
उनके प्रयोगों से रचना आभूषित हुई है यह बात उनके पाठकों और समीक्षकों ने तय की है
// वीनसभाई ने जो कुछ जिस तरीके से कहा वह उनकी समझ और सोच के सापेक्ष सही हो सकता है. किन्तु, मैं जानता हूँ कि वे एक संयत पाठक हैं. अलबत्ता, अरुज़ और उर्दू रवायत के अलावा भी ग़ज़ल की महीनी असरदार होती है, इसकी समझ बननी है. तबतक वे मुझे अपनी सहमति दें, न दें, मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. मुझे भान है, कि ऐसी समझ के बनते ही वे मुझे मेरी तथाकथित प्रस्तुतियों के साथ स्वीकार करने लगेंगे. //
आदरणीय
आपके इस विचार का भी स्वागत है
इस वक्तव्य को सुरक्षित कर लिया है, भविष्य में आपकी ग़ज़ल पर कुछ कहने से पहले इसे पढ़ लिया करूंगा, तभी कुछ कहूँगा
सादर
कल हुई विस्तृत फोन वार्ता के बाद आई इस विस्तृत टिप्पणी का स्वागत है ....
आपकी समस्त सहमतियों और असहमतियों का सहर्ष स्वागत है ....
एक विचार जो मैंने नेपाल ग़ज़ल महोत्सव में काठमांडू में प्रस्तुत किया था और कल रात आपसे भी कहा था उसे यहाँ खुली चर्चा में पुनः प्रस्तुत करना उचित होगा ....
साहित्य क्षेत्र में "प्रयोग" को नकारना "हास्यास्पद" है मगर प्रयोग की सफलता और असफलता इस बात से निर्धारित होती है कि रचना इससे भूषित हो रही है या दूषित हो रही है
यदि भूषित होती है तो प्रयोग सफल है, यदि दूषित होती है तो प्रयोग असफल है
और इसका निर्धारण प्रयोगकर्ता स्वयं नहीं कर सकता ....
एक समय से इस पोस्ट पर नहीं आया था. इसके कई कारण भी थे. व्यक्तिगत व्यस्तता के अलावा वातावरण के संयत होने की प्रतीक्षा भी थी. तो यह भी था कि क्यों नहीं मैं कुछ और अध्ययन कर लूँ. ताकि मेरी अपनी समझ और विन्दुवत हो जाये. मेरा सदा से मानना रहा है कि किसी रचना से उसका रचनाकार बड़ा नहीं होता. लेकिन अदब या साहित्य पाठकीय अथवा लेखकीय बर्ताव को हाशिये पर रखने की अनुमति भी नहीं देता. यदि इस पोस्ट पर वीनस केसरी की टिप्पणी की भाषा बेअदबी की श्रेणी में गिनी-मानी-समझी गयी है और इसे समझने वाले कई-कई पाठकों ने मुझे इसकी साग्रह सूचना दी है, तो उनकी संवेदना का सम्मान करते हुए मुझे हार्दिक दुख हुआ है. कारण, कि वीनस ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करते जिससे बेअदबी ज़ाहिर हो. वे एक संयत पाठक हैं. अलबत्ता, व्यक्तिगत तौर पर मेरी रचनाओं, विशेषकर तथाकथित ग़ज़लों पर, साग्रह तीखे अवश्य रहते हैं, सीधी बात करने की ओट में. एक शुुरु से. यह वीनस का कोई नया रूप नहीं है. इसके प्रति वीनसजी के पास अपने तर्क हैं. मैं उस तर्क का भी सम्मान करता हूँ. हम दोनों को जानने वाले इस बात और विन्दु को खूब समझते हैं. ग़ज़ल के अरुज़ पर जितना काम वीनस ने किया है वह चकित भी करता है तो आश्वस्त भी करता है कि आने वाला समय ग़ज़ल विधा के लिए समरस होने वाला है, यदि वे श्लाघा के प्रभावी किन्तु एकांगी जंगल में नहीं भटके तो. कारण कि, वीनस इसे मानें या न मानें, किन्तु वयस-सुलभ एक विशिष्ट प्रवृति को वे नकार नहीं पा रहे. यह प्रवृति किसी अन्य के उत्साह एवं अध्ययन के प्रति निरंकुश बना देती है. यह प्रवृति इस उम्र की तपस्या और तदनुरूप प्राप्त ज्ञान का बाइ-प्रोडक्ट है. इसे संयम से स्वीकार कर लेना अग्रजों का बड़प्पन होगा.
यह सही है, कि इस ग़ज़ल के परिप्रेक्ष्य में आवश्यकतानुसार कइयों से बातें हुईं. कुछ सार्थक भी तो कई बातें निरर्थक भी. सार्थक ऐसे कि कई मान्य रचनाकारों और पाठकों से संपर्क हुआ. उनमें इस मंच पर सर्वसम्मानीय आदरणीय एहतराम इस्लाम साहब भी हैं. खुलासे के दौरान व्याकरणीय विन्दुओं पर भी बातें हुईं. मैं उन्हीं से हुई बातचीत के संदर्भ को आगे बढाऊँगा भी.
किसी सामान्य पाठक की दृष्टि उसकी समझ के अनुसार ही पाठ्य में सबकुछ ढूँढती है. यह एक सच्चाई है. ग़ज़ल भी एक विधा है. पद्य विधा. किसी प्रस्तुति की शैली, उसकी भाषा (मात्र शब्द नहीं) और तथ्य किसी अन्य की समझ के मुखापेक्षी नही होते. बशर्ते रचनाकार की अन्यान्य पद्य विधाओं में शैली, भाषा और तथ्य के कुल परिणाम में संप्रेषणीयता का टोंटा न पड़ा हो. ग़ज़ल में ’ये मान्य है और ये, या ऐसे, मान्य नहीं है’ की घोषणा या दबाव कितना हास्यास्पद है, इसके जीते-जागते उदाहरण अपने बीच आदरणीय एहतराम इस्लाम साहब ही हैं. उन्होंने इस विन्दु पर मुझसे बातें करते हुए मुझे रोक कर कहा कि, यदि मैं इन तीनों के प्रति बनी-बनायी लकीर पर बना रहता तो आजतक कुछ न लिख पाता. किसी रचनाकार को किस लिहाज और भाषा में लिखना है, क्या ये समीक्षक या पाठक बतायेगा ? ऐसा अधिकार तो किसी को नहीं है. नहीं तो, अन्यान्य लेखकों और रचनाकारों की विभिन्न भाषा-शैलियों की आवश्यकता ही क्या है ? इस परिप्रेक्ष्य में कहना अन्यथा न होगा कि व्याकरण के लालित्य और सामर्थ्य का प्रयोग रचनाकार नहीं करेगा तो कौन करेगा ? यदि कोई बनी बनायी लकीर पर नहीं चलता तो उसकी रचना में किसी पाठक को प्रयोग ही प्रयोग दिखेगा. उसे स्वीकारना या न स्वीकरना पाठक के स्वर्जित ज्ञान और अध्ययन पर निर्भर करता है. यह उस पाठक की व्यक्तिगत परेशानी भी है.
भाषा के किस स्वरूप को एक रचनाकार स्वीकारता है, यह उसकी शिक्षा और अध्ययन के अलावा उसकी जन्मजात प्रवृति पर भी निर्भर करता है. यह किसी विधा के व्याकरण से निर्धारित नहीं होता. यह बात जितनी जल्दी समझ ली जाय उतना ही उचित. अन्यथा रचना की समीक्षा या पाठकीय प्रतिक्रिया के नाम पर सारा कुछ व्यक्तिगत आक्षेप के अंतरगत जुगुप्साकारी होता जायेगा.
यह सही है कि मेरी ग़ज़ल (यदि उन प्रस्तुतियों को इस विधा का नाम दिया जाय तो) में मेरी भाषा तनिक आंचलिक छौंक को प्रश्रय देती है. इसकारण, यह आज के कई ग़ज़ल जानकारों को (मात्र पाठक नहीं) सरस और जीवंत भी लगती है. इसमें कई सर्वस्वीकार्य नाम भी हैं. तो कइयों को यही छौंक उसके लालित्य की समझ या जानकारी न होने कारण चुभती भी है. इसका मात्र एक उदाहरण देना चाहूँगा, एक ’तथाकथित’ ग़ज़ल के एक शेर में मैंने ’लसफसाना’ शब्द का प्रयोग किया था. एक ’पाठक’ ने मुझे सीधा कह दिया कि मैं ग़ज़ल की आत्मा और उसके बर्ताव एवं व्यवहार से खिलवाड़ कर रहा हूँ. ग़ज़लें ऐसे नहीं लिखी जातीं. मज़ा ये कि जिस मंच पर यह ग़ज़ल स्वीकृत हो कर प्रस्तुत हुई, वहाँ के उस्ताद (यह ’मान’ पूर्णतया होशोहवास में दे रहा हूँ) ने ठीक इसी शब्द को पूरी ग़ज़ल के स्तर के उठ जाने का कारण बता दिया ! कई भर्ती के शब्दों पर हमने हाय-तौबा मचती देखी है. लेकिन जब उस्ताद शायरों ने उन अश’आर को सुना तो उन्हीं ’भर्ती’ के शब्दों के प्रयोग पर बार-बार वाह-वाह करते रहे. जब हमने कहा कि कुछ पाठक उन शब्दों को भर्ती का शब्द कह रहे हैं, तो ’छोड़िये’ कह कर इस प्रश्न को ही समाप्त कर दिया गया. अब इस पर भी कोई आग्रही यह कह दे कि वे लोग मुझे मात्र प्रसन्न करने के लिए ऐसा करते हैं तो मैं क्या कर सकता हूँ ?
इस प्रस्तुति पर आदरणीय समर साहब ने भी चर्चा की है. उनकी चर्चा का मुख्य कारण ’जीयूँ’ के प्रयोग को लेकर था. मैंने इस तथ्य से सम्बन्धित कई विन्दु रखे. ये मेरे मन गढंत विन्दु नहीं थे. लेकिन आदरणीय समर साहब का कहना था कि ’जी लूँ’ का होना श्रेयस्कर होगा. इसी विन्दु पर इसीको स्पष्ट करते हुए आदरणीय एहतराम साहब ने कहा कि प्रस्तुत ग़ज़ल की भाषा सीधी हिन्दी है. अतः ’जीयूँ’ जैसी क्रियारूप का होना कुल भाषा के साथ सहज मिश्रित नहीं होता. आदरणीय एहतराम भाई ने ग़ज़ल में स्वीकृत या अस्वीकृत होने की बात न कर मात्र भाषायी व्यवहार की बात की.
मैं इस ग़ज़ल, विशेषकर उक्त शेर के परिप्रेक्ष्य में, आदरणीय समर साहब के कहे को सादर स्वीकार करता हूँ. इन्हीं चर्चाओं और इस तरीके की चर्चाओं से सीखने-सिखाने की प्रक्रिया सबल होती है. यह ’हारने-जीतने’ की श्रेणी की कवायद नहीं है. और, ओबीओ के पटल पर विगत में भी ऐसे कई-कई संवाद हुए हैं, होते रहे हैं. जो कि हो सकता है कि पटल (मंच) के नये सदस्यों को ऐसे संवादों और चर्चाओं का होना अभी तनिक असहज लग सकता है.
वीनसभाई ने जो कुछ जिस तरीके से कहा वह उनकी समझ और सोच के सापेक्ष सही हो सकता है. किन्तु, मैं जानता हूँ कि वे एक संयत पाठक हैं. अलबत्ता, अरुज़ और उर्दू रवायत के अलावा भी ग़ज़ल की महीनी असरदार होती है, इसकी समझ बननी है. तबतक वे मुझे अपनी सहमति दें, न दें, मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. मुझे भान है, कि ऐसी समझ के बनते ही वे मुझे मेरी तथाकथित प्रस्तुतियों के साथ स्वीकार करने लगेंगे.
इसकी जानकारी हमने कल रात दे भी दी है.. :-))
सर्वोपरि, मैं किसी के बिठाने से झाड़ पा बैठने वालों में से नहीं हूँ, यह वीनस भाई को भी पता है. मगर कुल मिला कर भला ग़ज़ल का ही होता है. इसी क्रम में हम और समृद्ध हो जाते हैं. .. :-))
शुभ-शुभ
इस चर्चा में शामिल होने में देर हो गयी
जनाब समर कबीर साहब के कहे से इत्तेफ़ाक है ....
पीना - पी लूं - पियूं
जीना - जी लूं - जियूं
मेरी जानकारी में जीयूं शब्द उचित नहीं है ...
यह कथ्य बिलकुल गलत है
// वस्तुतः जैसा कि हम जानते हैं, सही शब्द ’जीना’ है. तभी ’जीया’ जाता है. लेकिन शेरों में जिया भी जाता है क्यों कि वहाँ रुक्न की मात्रा के अनुसार ’जीने’ के ’जी’ को गिराने की छूट लेनी होती है. //
जीयूं शब्द यदि सही भी होता तो इसके जी को किसी दशा में नहीं गिराया जा सकता है
जीने शब्द के जी को किसी दशा में नहीं गिराया जा सकता है
जैसे पीना से पिया बनता है वैसे ही जीना से जिया बनता है जीया कैसे बना लिया गया, इस प्रकार का कोई देशज शब्द भी नहीं दिखाई पड़ता ....
समर कबीर साहब स्पष्ट नहीं कह रहे हैं मगर यह शेर बेबहर है, सही करें
शब्द मुंह को मूँ लिखने की कोई ज़रुरत नहीं है क्योकि शेर में जो वाक्य बन रहा है वो देशज नहीं है और मात्रा की भी कोई ऐसी बंदिश नहीं दिखती
कुछ शेरो में ज़रूरी शब्दों का न होना अखरता है ... और हमें अपने अर्थ खोजने पड़ते हैं .. यह शेर की नाकामी है
शेर कामयाब तब होता है जब सामने दिख रहे एक अर्थ के पीछे कोई और अर्थ छुपा हो या कई अर्थ छुपे हों और जिनका बयान शेर में न हो
मगर यहाँ तो पहला अर्थ ही नदारद है ... शब्दों को जोड़ तोड़ कर अर्थ निकालना पड़ रहा है
हफ्ज़े लफ्ज़ अरूज़ में बड़ा ऐब मन जाता है जिससे शेर ख़ारिज हो जाता है, यही यहाँ हो रहा है
//फ़िल्मी गानों को अदब में सनद का दर्जा हासिल नहीं है//
हमें भी इसका खूब गुमान है, आदरणीय.
लेकिन हमने जो उद्धरण दिये हैं, मेरा आशय उनको देख लेने के निवेदन से है. न कि आपको फ़िल्मी गीत सुनाने से. और, जिन नामों से उद्धरण हमने दिये हैं, वे उद्धरण मात्र उन शब्दों के प्रयोग को लेकर हैं जिन के बाबत आपने पूछा है.
इधर आपने भी ’जीयूँ’ को ’जी यूँ’ कर जो इशारा किया है, वह आपके कहे को एक रोचक मोड़ भर देता है. लेकिन जिस ढंग से हम आपसी ’बतकूचन’ कर रहे हैं, वह अन्य पाठकों के लिए कौतुक का विषय ही होगा. क्योंकि इस ग़ज़ल पर जो होनी था, वह बातचीत हो चुकी है. इस विन्दु पर इतनी चर्चा के लिए आपका सादर धन्यवाद.
शुभ-शुभ
भाई शिज्जू जी, ग़ज़ल बस ग़ज़ल होती है. अब ये देखना कि हम कहना क्या चाहते हैं.
हिन्दी ही नहीं अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी ग़ज़ल ने जो कमाल की ऊँचाइयाँ हासिल की हैं उसके पीछे कहन और बिम्ब में ताज़ग़ी की ही महती भूमिका है. आपको प्रयास अच्छा लगा मेरे लिए संतोष की बात है.
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