२१२२ १२१२ २२
साफ़ कहने में है सफ़ाई क्या ?
कौन समझे पहाड़-राई क्या ?
चाँद-सूरज कभी हुए हमदम ?
ये तिज़ारत है, ’भाई-भाई’ क्या ?
सब यहाँ जी रहे हैं मतलब से
मैं भी जीयूँ तो बेवफ़ाई क्या ?
चाँद है वो, मगर सितारों की
उसने फिर से सभा बुलाई क्या ?
क्या अदब ? लाभ पढ़, मुनाफ़ा लिख
गीत कविता ग़ज़ल रुबाई क्या ?
मुट्ठियों की पकड़ बताती है
चाहती है भला कलाई क्या !
खुदकुशी के हुनर में माहिर हूँ
कामना क्या, मुझे बधाई क्या ?
लग गया खूँ अगर किसी मूँ को,
फिर तो मालूम है, दवाई क्या !
***************
-सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
अपने मत को साझा करने केलिए हार्दिक धन्यवाद भाई दिनेशजी..
आदरणीय सौरभ सर आपकी रचनायें एक अलग ही रस लिये हुये होती है। रवायती ग़ज़लों से अलग एक नया अंदाज़ लिये हुये इस ग़ज़ल के लिये दिली दाद कुबूल फरमायें
आदरणीय समर साहब,
आपने जिस आत्मीयता और उदारता से हमारे उक्त शेर को समय दिया है, हम पुनः कहते हैं, यह हमारे जैसे किसी अभ्यासी के लिए गर्व का विषय हो सकता है. आपसे मिले इस सम्मान केलिए हम आपके आभारी रहेंगे.
जैसा कि आदरणीय हमने पिछली बार कहा है, वही पुनः कहेंगे. कि, उक्त शेर में कर्ता किसी लिहाज में जीने की बात सोच नहीं रहा है, यानी देखा-देखी प्लानिंग नहीं कर रहा, बल्कि अब जब कि सभी मतलब से जी रहे हैं और वह भी उसी ढंग में जी रहा है तो अपने जीने को rationalize कर रहा है, अर्थात, सही ठहरा रहा है.
इस लिहाज से वह यहाँ कहना चाहता है कि मैं भी (इसी ढंग में) जीयूँ (यानी जी रहा हूँ) तो (किसी को) बेवफ़ाई क्यों लगे, या, लगनी चाहिये ?
आपके सुझाव ”जी लूँ’ का अर्थ यह निकलता है कि, कर्ता यह जानकर कि ’सब’ जब यहाँ मतलब के मारे हैं और स्वार्थ और मतलब के वशीभूत ही ’जी रहे’ हैं, तो वह कर्ता भी ऐसे ही ’जीने लगे’ तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है, या उसके इस जीने को ’बेवफ़ाई’ न मानी जाये. यानी साफ़ है कि कर्ता ’अभी’ मतलब परस्ती में जीने का काइल नहीं है, न वैसे प्रभाव में ’जी रहा’ है. बल्कि औसतन ’सभी’ को ऐसा ही बरतते हुए देख कर न केवल क्षुब्ध है, बल्कि वह आगे से इसी लिहाज में जीने की सोच रहा है.
आदरणीय, ’जीयूँ’ तथा ’जी लूँ’ के निहितार्थों में जो बारीक अन्तर है हम फिरसे स्पष्ट कर रहे हैं. वस्तुतः, आदरणीय, उद्धृत शेर के कर्ता की सोच के अनुसार देखिये तो वह अपने को ’सब’ से अलग नहीं देख रहा, बल्कि वह भी इसी तरह से ’जी रहा’ है जैसे सभी जी रहे हैं. लेकिन उसके लिहाज को उसकी ’बेवफ़ाई’ की तरह प्रचारित किया जा रहा है, उसी पर अदबदाया हुआ अपनी बात कह रहा है.
इसी तथ्य को पिछली बार भी हम स्पष्ट करना चाहे थे.
//"जियूँ" और "जीयूँ" में क्या अंतर है ? //
वस्तुतः जैसा कि हम जानते हैं, सही शब्द ’जीना’ है. तभी ’जीया’ जाता है. लेकिन शेरों में जिया भी जाता है क्यों कि वहाँ रुक्न की मात्रा के अनुसार ’जीने’ के ’जी’ को गिराने की छूट लेनी होती है.
आप ये गीत उदाहरण देखें -
२१२२ ११२२ ११२२ २२ (११२)
गम उठाने के लिये मैं तो जिये जाऊँगा
साँस की लय पे तेरा नाम लिये जाऊँगा .. (हसरत जयपुरी साहब)
यहाँ, कहना न होगा, ’जिये’ शब्द को १२ में बाँधा गया है. वर्ना सही शब्द होगा ’जीये जाऊँगा’.
अब एक और उदाहरण देखें -
तेरे बिना जीया जाये ना
बिन तेरे तेरे बिन साजना .. (ग़ुलज़ार साहब)
यहाँ बहर का बन्धन न होने से जीना के स्वरूप ’जीया’ को २ २ में ही रखा गया है.
जिया का एक और अर्थ है. इस उद्धरण को देखें -
ना जिया लागे ना
तेरे बिना मेरा कहीं जिया लागे ना..
पिया तोरी बांवरी से रहा जाये ना...
ना जिया लागे ना .. (ग़ुलज़ार साहब)
इस गीत में ’जिया’ हृदय का अर्थ देता है.
विश्वास है, आपसे एक सार्थक संवाद हुआ.
सादर
आदरणीय आशुतोष भाईजी,
आपने जिस आत्मीयता से मेरी इस प्रस्तुति को स्वीकार किया है वह मुझे रचना-सर्जन के दायित्वबोध के प्रति और अधिक सचेत कर रहा है. मैं आपके माध्यम से अपनी इस रचना के बरअक्स रचनाधर्मिता पर कुछ बातें साझा करूँ तो अन्यथा न होगा. यों कह नहीं सकता, इसे कतिपय पाठक किस तौर पर लेंगे. लेकिन यह भी सही है कि हर रचनाकार अपनी शैली और प्रवृति के अनुसार ही लिखता है और इसके आगे उसका व्यक्तिगत अभ्यास उसे सर्वस्वीकार्य बनाता है.
किसी रचना का सर्जन जिन कुछ विन्दुओं पर निर्भर करता है इन विन्दुओं में रचना-सर्जन हेतु आवश्यक नैसर्गिक संवेदना तथा गुण, इस संवेदना तथा गुण को शाब्दिक करने के प्रति समर्पण तथा आवश्यक शिल्प के प्रति दीर्घकालिक अभ्यास जैसे विन्दु अत्यंत महात्त्वपूर्ण हुआ करते हैं. यही कारण है, कि शिल्प से यथोचित रूप से समृद्ध व्यक्ति ’सामान्य-सा’ तो कई बार तो ’लचर’ रचनाकार साबित हो जाता है. केशवदास की शिल्पगत जानकारी के आगे तुलसी या सूर तक को तौला जा सकता है, और केशव के सामने ये दोनों उन्नीस ही साबित हों. लेकिन केशव ’पद्य का प्रेत’ कहाये, दूसरे सूर या तुलसी की भावदशा का वे शतांश भी नहीं जी पाये. मैं ऐसे अरुज़ियों को जानता हूँ, जिनकी दस बेहतरीन ग़ज़लों का संकलन एक कष्टसाध्य कार्य हो जाये.
यह सारा कुछ मात्र पद्य-साहित्य में ही नहीं होता बल्कि हर विधा के लिए मान्य है. ग़ज़ल के ’विभाग’ में भी अच्छी ग़ज़लें या अच्छे शेर वे माने गये हैं जिनकी कहन और उस कहन का निहितार्थ अत्यंत उच्च ढंग का रहा हो. शिल्प के तौर पर कसी और सधी रचनाएँ आवश्यक हैं लेकिन मात्र शिल्प ही आवश्यक नहीं. क्यों कि शिल्प मात्र साधन है जिसका सधा होना आवश्यक ही है. यानि यह किसी रचना का साध्य कत्तई नहीं.
शिल्प के आगे जहाँ तक संप्रेषणीयता की बात है तो यह रचना की दशा के साथ-साथ पाठक की व्यक्तिगत ’सोच’ और ’सोच’ के संस्कार पर भी निर्भर करती है. पद्य की समझ के लिहज से किसी पाठक को भी उतना ही सांस्कारिक होना होता है जितना किसी रचनाकार को रचना-सर्जन के तौर पर. अन्यथा तनिक भी शाब्दिक अभिव्यंजना ’गूढ़’, ’रहस्यमयी’ या ’क्लिष्ट’ लगने लगती है. जबकि अभिव्यंजना के बिना पद्य की कल्पना ही नहीं हो सकती. कई बार कुछ पाठक रचनाओं के नाम पर ’रिपोर्ट’ की सपाटबयानी की अपेक्षा करने लगते हैं, यह कहते हुए - ’सामान्य पाठक के पल्ले कुछ नहीं पड़ा, शब्द बहुत क्लिष्ट हैं’. जबकि कारण कुछ और होता है.
हालिया समाप्त हुई एक गोष्ठी में आधुनिक कविताओं का वर्तमान और भविष्य पर बातें करते हुए यह विन्दु भी गहराई से उठाया गया थी कि एक पाठक में भी पद्य को समझने के संस्कार होने चाहिये. इसके लिए पाठक को भी उतनी ही मेहनत और मशक्कत करनी चाहिये होती है जितनी किसी रचनाकार को रचना-सर्जन के लिए करनी होती है. एक संवेदनशील पाठक को भी उसी तौर पर् सांस्कारिक होना होता है.
सादर
भाई कृष्ण मिश्रा जान गोरखपुरी, शेर आप तक पहुँचे यही इनका उद्येश्य भी है. हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय गिरिरजभाईजी, आप जैसे गहन और सफल अभ्यासी मेरे शेरों से संतुष्ट हुए यह मेरे लिए भी संतोष की बात है. आपकी हौसला आफ़ज़ाई केलिए शुक्रगुज़ार हूँ.
सादर
आदरणीय सौरभ सर .. आपकी बहुत दिनों बाद कोई ग़ज़ल पढने को मिली ..आपकी रचनाओं पर प्रतिक्रिया देने से पहले कई बार पढना पड़ता है. कठिन शब्दों का प्रयोग कर या यों कहें बोलचाल में ज्यादा प्रचलित न होने वाले शब्दों के माध्यम से भी पाठक को देर तक रोका जा सकता है, लेकिन शब्द का अर्थ जानते ही अक्सर रहस्य आसानी से समझ आ जाते हैं ... आप के शब्द तो हमारी रोजमर्रा के जीवन में प्रयोग किये जाने वाले ही शब्द होते हैं. आज भी मैंने आपकी रचना को एक नहीं कई बार पढ़ा .. सभी लोग जो लिख रहे हैं उससे एकदम अलग अंदाज आपकी रचनाओं में होता है .. रचना का पूरा आनंद उठाने के लिए बिद्वानो की प्रतिक्रियाओं और उनपर आपकी प्रतिक्रियाओं को बहुत बारीकी से पढ़ा .. तमाम नयी बातें सीखने को मिलीं .. जीयूं और जीलूँ ....क्या अन्तर सहज तरीके से समझा दिया .. कमाल है ...मैंने रचना पर अपनी समझ को बिद्वानो और आपकी सोच के साथ तादतम्य स्थापित करने की प्रक्रिया में यह जाना कि कुछ जगहों मर मेरी सोच अलहदा थी ..प्रतिक्रिया को पढ़कर अपने ही सर पर हल्की चपत लगाकर नए अर्थों की दृष्टी से रचना को देखना शुरू किया ..सर यदि पाठक आपकी सोच की आवृति में हो तो ठीक है अन्यथा यदि कोई शेर जो आपने अपनी सोच के अनुरूप लिखा हो और पाठक वहां न पहुंचे हो तो उन शेरो के रहस्य से भी पर्दाफाश करने का कष्ट करें. जैसे आपने खुद्कसी पर आत्म मुग्धता के बारे में सोच कर स्पस्ट किया .....
मुट्ठियों की पकड़ बताती है
चाहती है भला कलाई क्या !.........ये भी बहुत बड़ा तजुर्बा है ..ये सब के बश की बात नहीं हैं ...
हर इशारे को देखने वाला अपने हिसाब से लेता है ..तभी मूकों और बधिरों के समाचार जैसी लगती है ग़ज़ल..जहाँ इशारों की सही तह तक जाने के लिए एक अलग नजर की जरूरत है .....
इस पूरी ग़ज़ल पर आपके अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण की आकांक्षा के साथ ...हार्दिक बधाई और सादर प्रणाम के साथ
आ० सौरभ सर बहुत ही उम्दा गज़ल हुयी है! अभिनन्दन!
सब यहाँ जी रहे हैं मतलब से
मैं भी जीयूँ तो बेवफ़ाई क्या ? हासिले-गजल शेर! दिल में उतर गया है!लाजवाब
क्या अदब ? लाभ पढ़, मुनाफ़ा लिख
गीत कविता ग़ज़ल रुबाई क्या ? बेहतरीन!
सच है इंजीनियरिग/ मेडिकल/ mba इत्यादि ऐसी पढ़ाई करो जिसमे भविष्य हो! लाभ हो!कला,साहित्य, गीत कविता ग़ज़ल रुबाई में क्या रखा है!ये अदबी चीजें बेकार है,आज के समय में इनका कोई मूल्य नही!
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