लघुकथा- आग
बरसते पानी में काम को तलाशती हरिया की पत्नी गोरी को बंगले में कुत्ते को बिस्कुट खाते हुए देख कर कुछ आश जगी, ‘ यहाँ काम मिल सकता है या खाने को कुछ. इस से दो दिन से भूखे पति-पत्नी की पेट की आग बुझ सकती थी.’
“ क्या चाहिए ?”
“ मालिक , कोई काम हो बताइए ?”
“ अच्छा ! कुछ भी करेगी ?” संगमरमरी गठीले बदन पर फिसलती हुई चंचल निगाहें उस के शरीर के रोमरोम को चीर रही थी.
“ जी !! ” वह धम्म से बैठ गई. उसे आज महसूस हुआ कि बिना तन की आग बुझाए पेट की आग नहीं बुझ सकती है उसे पेट की आग बुझाने के लिए तन की आग में जलने होगा .
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मौलिक व अप्रकाशित
२८/०९/२०१५
Comment
आदरणीय Saurabh Pandey जी आप की सराहना के लिए दिल से आभार .
सही है. इस प्रयास पर हार्दिक शुभकामनाएँ
आदरणीय maharshi tripathi जी आप
लघुकथा पर आप की यथार्थ दृष्टिकोण के लिए हृदय से आभार .
आदरणीय krishna mishra 'jaan'gorakhpuri जी आप
ने लघुकथा को सुंदर कह दिया. मेरी मेहनत सफल हो गई .
इस प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार .
आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी आप की प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभारी हूँ .
आदरणीय Shyam Narain Verma जी आप की प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभारी हूँ .
आदरणीय JAWAHAR LAL SINGH जी आप ने बहुत बढ़िया बात की है
आप ने त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाया .
आभार आप का
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आप ने बहुत बढ़िया बात की है
आप ने त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाया .
आभार आप का
भविष्य में भी इसी तरह मेरा सहयोग करते रहे.
आदरणीय vinaya kumar singh जी आप ने बहुत बढ़िया बात की है .त्रुटिया वास्तव में बहुत खटकती है . पर , कभीकभी गूगल अनुवाद गड़बड़ कर जाता है .
आभार आप का
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