1.
फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फाइलुन
२२ २२ २२ २२ २१२
बहरे मुतदारिक कि मुजाहिफ सूरत
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जब से वो मेरी दीवानी हो गई
पूरी अपनी राम कहानी हो गई
काटों ने फूलों से कर लीं यारियां
गुलचीं को थोड़ी आसानी हो गई
थोड़ा थोड़ा देकर इस दिल को सुकूं
याद पुरानी आँख का पानी हो गई
सारे बादल छुट्टी पर जबसे गए
सूरज से थोड़ी शैतानी हो गई
जब जब आँखों से तुमको पढने चले
तब तब धड़कन की मनमानी हो गई
जब भी सुनानी चाही अपनी दास्तां
एक ग़ज़ल फिर से तूलानी हो गई
जितना था सब नाम तुम्हारे कर दिया
हमसे इतनी सी नादानी हो गई
2.
फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन्
१२२ १२२ १२२ १२२
बहरे मुतकारिब मुसम्मन सालिम
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वो उड़ने का अपने हुनर बेचता है
परिंदा कटे अपने पर बेचता है
नहीं है पता जिसको खुद का ठिकाना
सुना है वो शम्स-ओ-कमर बेचता है
जो शाम-ओ-सहर बेच कर कुछ न पाया
तो तपती हुई दोपहर बेचता है
वो ऊँची ईमारत का नक्शा दिखाकर
गरीबों को कागज़ पे घर बेचता है
मिली थी विरासत में जितनी भी दौलत
वो उनको बस एक एक कर बेचता है
अदाकारी उसकी ज़रा देखो 'राणा'
बस अड्डों पे लाल-ओ-गुहर बेचता है
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय राहुल डांगी जी ग़ज़ल पसंद करने के लिए हार्दिक आभार| आपने सही फरमाया है दास्तां स्त्रीलिंग शब्द है और आपके कहे अनुसार ही मैं मिसरा संशोधित कर रहा हूँ|
आदरणीय विनय कुमार सिंह जी शेर पसंद करने हेतु हार्दिक आभार|
आदरणीया परी जी शेर पसंद करने के लिए शुक्रिया|
आदरणीय मिथिलेश जी दाद देने के लिए तहे दिल से शुक्रिया|
आदरणीय मनोज कुमार एहसास जी ग़ज़लें आपको प्रभावित कर सकीं यह हर्ष का विषय है|
आदरणीय सुनील प्रसाद (शाहाबादी) साहब दाद देने के लिए शुक्रिया|
आदरणीय मोहन सेठी जी गज़लें पसंद करने के लिए हार्दिक आभार|
आदरणीय राणा जी, दोनों ग़ज़लें बेहद खूबसूरत हैं। दिली दाद कुबूल कीजिए
आ० राणा सर! बहुत ही बेहतरीन गजल हुयी है,शेर दर शेर दाद प्रेषित हैं.गज़ल के माध्यम से अलिफ़ वस्ल का कांसेप्ट और अच्छे से स्पष्ट हो सका !आभार सर!
थोड़ा थोड़ा देकर इस दिल को सुकूं
याद पुरानी आँख का पानी हो गई
सारे बादल छुट्टी पर जबसे गए
सूरज से थोड़ी शैतानी हो गई....................ये दो शेर खासकर बस गये दिल में!
आदरणीय राणा भाई , क्या खूब गज़ल हुई है , दोनो , धमाके दार , किस शेर की तारेफ करूँ , सभी बेहतरीन हैं , फिर भी --
सारे बादल छुट्टी पर जबसे गए
सूरज से थोड़ी शैतानी हो गई
जब जब आँखों से तुमको पढने चले
तब तब धड़कन की मनमानी हो गई
जब भी सुनाना चाहा अपनी दास्तां
एक ग़ज़ल फिर से तूलानी हो गई
जितना था सब नाम तुम्हारे कर दिया
हमसे इतनी सी नादानी हो गई -- लाजवाब , कब सिखायेंगे ऐसे शेर् कहना ?
और -
नहीं है पता जिसको खुद का ठिकाना
सुना है वो शम्स-ओ-कमर बेचता है
वो ऊँची ईमारत का नक्शा दिखाकर
गरीबों को कागज़ पे घर बेचता है --- क्या बात है ।
आदरणीय एक मिसरे की तक्तीअ नहीं कर पाया --
वो उनको/ बसे क ए/ क कर बे/ चता है --- बताइयेगा , दूसरा रुक्न ॥
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