1222 1222 1222 122
क़रीब आ ज़िन्दगी, तुझको समझना चाहता हूँ
मैं ज़र्रा हूँ , तेरी बाहों में फिरना चाहता हूँ
समेटा खूब , खुद को, पर बिखरता ही गया मैं
ग़ुबारों की तरह अब मैं बिखरना चाहता हूँ
जमा हर दर्द मेरा एक पत्थर हो गया है
ज़रा सी आँच दे , अब मैं पिघलना चाहता हूँ
तेरी आँखों मे देखी थी कभी तस्वीर खुद की
जमाना हो गया , मै फिर सँवरना चाहता हूँ
लगा के बातियाँ उम्मीद की ,दिल के दिये में
मैं सारी रात , तनहाई में जलना चाहता हूँ
सुना , चुभने लगा है अब उजाला भी किसी को
ख़ुदा हाफिज़ ! यहाँ से अब निकलना चाहता हूँ
बुना मेरे अहम ने जाल , मै ही फँस गया हूँ
तड़पता हूँ , कि मैं बाहर निकलना चाहता हूँ
अगर इंसान कहते हैं इन्हें, जो जी रहे हैं
तो मै इंसान होने से मुकरना चाहता हूँ
******************************************
Comment
आ. मिथिलेश भाई , आभार आपका ।
आदरणीय गिरिराज सर, बढ़िया ग़ज़ल हुई है, हार्दिक बधाई
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online