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"हम फलों से जरा लदे नहीं , हर राह चलता पत्थर फेंकना शुरू कर देता है । सिर्फ इसीलिए क्योंकि हम राह पर अनाथों के तरह फल-फूले हैं ।"
"हाँ भाई ! ठीक कहते हो । यदि  हम भी किसी बाग़ की शोभा होते तो नाज़ों से पलते , ठाठ से रहते । पत्थर की कोई छुअन हम तक नहीं पहुँच पाती ।"
"अजीब विडम्बना है , परवरिश गुलशन में मिले तो कीमत लाखों की , सरे राह क्या जन्मे ,आँख का कांटा हो गए ।"
"हूँ...। गोया कि बाग़ से इतर हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं । "
युवा पेड़ों के वार्तालाप को सुन पास खड़ा बूढ़ा वृक्ष बोल पड़ा - " काश ! इस विडम्बना का शिकार सिर्फ हम वृक्ष ही होते । "

.

मौलिक व अप्रकाशित ।

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Comment by shashi bansal goyal on July 24, 2015 at 3:55pm
आद0 मिथिलेश वामनकर जी हृदय से आभारी हूँ सदा रचना पर अपनी स्नेहिल उपस्थिति दर्ज कराने और सराहने हेतु ।
Comment by shashi bansal goyal on July 24, 2015 at 3:50pm
आद0 प्रतिभा पांडे जी हार्दिक आभार एवं धन्यवाद रचना को अपना अमूल्य समय देने हेतु ।
Comment by shashi bansal goyal on July 24, 2015 at 3:48pm
आद0 महर्षि त्रिपाठी जी हार्दिक आभार एवं धन्यवाद रचना को सराहित करने हेतु ।
Comment by shashi bansal goyal on July 24, 2015 at 3:47pm
आद0 ओमप्रकाश जी कथा पर आपकी उपस्थिति और सराहना पाकर अभिभूत हूँ ।सादर धन्यवाद आपका ।
Comment by shashi bansal goyal on July 24, 2015 at 3:44pm
आद0 कांता जी आपकी टिप्पणी ने रचना को पूरी तरह उभार दिया है ।आभारी हूँ कथा के मर्म को समझ इतने सुन्दर तरीके से परिभाषित करने हेतु । एक आग्रह है जो भी कमी रचना मे देखे बेझिझक बताएं ताकि निरन्तर सुधार हेतु प्रेरित रहूँ । सादर ।
Comment by kanta roy on July 24, 2015 at 9:05am
भव्यता की चाह .... नाज और ठाठ से पलने की चाह ही सारी विसंगतियों की जड़ है । हर किसी की पहुँच में होने वाले ने अपने सामान्य होने के कारण जन - जन को उपलब्ध होने का सुख भूल गया । कितने भूखे के मन को तृप्ति देता है चोट सहकर अपना जीवन सार्थक करता है । नाज और ठाठ से रहने वाला .... परकोटे में घिरकर जन मानुष से दूर बस चंद लोगों की पहुँच में .......भरे पेट को ही भरते रहना .... हाय रे ! कितना व्यर्थ उसका जीवन हुआ । इस लघुकथा में फर्क के माध्यम से काफी सारे चिंतन दिये है । स्वंय की हालतों पर दुखी होने का स्वभाव बडा ही सहज है । बधाई आपको आदरणीया शशि जी इस सुंदरतम रचना के लिए ।
Comment by Omprakash Kshatriya on July 23, 2015 at 8:48pm

बहुत ही खूबसूरत लघुकथा आप की 

Comment by maharshi tripathi on July 22, 2015 at 10:15pm

सामाजिक विडंबना को क्या खूब चित्रित किया है अपने ,,,बहुत बहुत बधाई आपको |

Comment by pratibha pande on July 22, 2015 at 8:04pm

बहुत अच्छी  मार्मिक कथा के लिए बधाई ,आ० शशि जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 22, 2015 at 4:55pm

आदरणीया शशि जी, आपने वृक्ष संवाद के माध्यम से एक बड़ी सामाजिक विसंगति और विडंबना को उभारा है. इस संवेदनशील रचना पर हार्दिक बधाई.

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