सूरज बोला रात से, आना नदिया पास।
घूँघट ओढ़े मैं मिलूँ , मिल खेलेंगे रास । ।
गोद निशा रवि आ गया , सोया घुटने मोड़ ।
चन्दा भी अब चल पड़ा , तारा चादर ओढ़ । ।
पीड़ा वो ही जानता , खाए जिसने घाव ।
पाटन दृग रिसत रहे ,कोय न समझा भाव । ।
विरह मिलन दो पाट हैं, जानत हैं सब कोय ।
सबहि खुशी गम सम रहे, दुःख काहे को होय। ।
नदिया धीरे बह रही ; पुरवइया का जोर ।
चाँद ठिठोली कर रहा , चला क्षितिज जिस ओर । ।
बदरा घूँघट जा छिपा , चन्द्रमा का प्रकाश ।
पिया मिलन को आ रहे, हिया उड़ा आकाश ।।
घाट घाट साधू फिरे , भरे कमंडल नीर।
नदिया सा जीवन बहे , शांत सुखद गंभीर । ।
मौलिक / अप्रकाशित
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
Comment
आदरणीय श्री गिरिराज भंडारी जी
सादर अभिवादन
आपका स्नेह मिला , आभार ,
१-
विरह मिलन दो पाट हैं, जानत हैं सब कोय ।
सबहि खुशी गम सम रहे, दुःख काहे को होय। ।--संशोधित
२- बदरा घूँघट जा छिपा , चन्द्रमा का प्रकाश । --- मात्रा पूरी कर दी, अब ठीक हो तों पोस्ट संशोधित कर ली जाए ,
आदरणीय प्रदीप भाई , सभी दोहे बहुत अच्छे रचे हैं , आपने । आपको हार्द्क बधाइयाँ ।
गम खुशी सबहि सम रहे, दुःख काहे को होय । । -- इस पंक्ति मे गेयता बाधित है , इसे यों कर लीजिये --
सबहि खुशी गम सम रहे, दुःख काहे को होय । ।
चन्दा का प्रकाश । -- इस पद मे मात्रा कम है
दोहा वली के लिये आपको बधाइयाँ ।
आदरणीया kalpna mishra bajpai जी सादर आभार , प्रोत्साहन हेतु .
बहुत सुंदर दोहे
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