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"क्या कर रहा है i,बार बार साँस तोड़ कर सुर गड़बड़ा रहा है ..ध्यान कहाँ है तेरा ?"

"जी ,वो रात से घरवाली की हालत बहुत खराब है ,..यहाँ से फारिग हो जाऊं ,और पैसे मिल जाएँ तो अस्पताल ले जाऊं "

"मिल जाएंगे पैसे , करोड़ों की इस शादी का इंतजाम लिया है मैंने ,तू अच्छी शहनाई बजाता है खासकर बिदाई की ,इसलिए तुझे पूरे दो हज़ार दे रहा हूँ एक घंटे के  ,बस 10-15 मिनट में  हो जाएगी बिदाई,  चले जाना "I

उसने शहनाई पर होंठ रखे ही थे कि कंधे पर हाथ महसूस किया ,छोटा भाई था .. बदहवास, चेहरा आँसूओं से तर

"दद्दा ..वो भौजाई .."

दुल्हन फूलों से लदी गाड़ी की तरफ बढ़ रही थी

डबडबाई आँखों को उसने जोर से बंद किया ,पूरी ताकत से सांस अन्दर ली और विदाई की धुन छेड़ दी...

 

मौलिक व् अप्रकाशित  

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 22, 2015 at 4:54pm

प्रतिभा जी

जरा सी बात आपके शिल्प से निखर कर सुन्दर  लघु  कथा बनी . बधाई हो .

Comment by kanta roy on August 21, 2015 at 9:02am
हृदय करूणा से भर गया । लगा की जैसे वो विदाई की राग मेरे कानों में समा गये ।बडी ही तीव्र और तीखी धुन थी वो । सरगम के सातों सुर भी रो पडे हो जैसे । दो - दो विदाई के धून जो साथ बज उठे थे । क्या अर्थीं क्या डोली !
बधाई आपको आदरणीया प्रतिभा जी ।
Comment by pratibha pande on August 20, 2015 at 8:44pm

कथा की सराहना के लिए आपका आभार आ० अन्नपूर्णा जी 

Comment by pratibha pande on August 20, 2015 at 8:40pm

आ० जवाहरलाल जी ,आपने कथा पर आकर मान बढाया ,आपका ह्रदय से आभार

Comment by pratibha pande on August 20, 2015 at 8:35pm

आ० लक्ष्मण भाई ,कथा की सराहना के लिए आपका आभार

Comment by pratibha pande on August 20, 2015 at 8:31pm

कथा की  प्रशंसा के लिए आपका तहे दिल आभार आ० शशि जी

Comment by pratibha pande on August 20, 2015 at 6:36pm
आदरणीय सौरभ पांडे जी ,कथा की सराहना के लिए आपका ह्रदय से आभार
Comment by pratibha pande on August 20, 2015 at 6:30pm
आ० रवि प्रभाकर जी , आपने कथा पर आकर मेरा उत्साह वर्धन किया आपका तहे दिल से आभार
Comment by pratibha pande on August 20, 2015 at 6:28pm
आदरणीय विजय निकोरे जी ,आपके मेरी रचना पर आने से मै अभिभूत हूँ ,आप आगे भी उत्साह वर्धन करते रहेंगे ,इसी आशा के साथ एक बार फिर ह्रदय से आभार
Comment by vijay nikore on August 20, 2015 at 4:43pm

अति मार्मिक सुन्दर लघु कथा के लिए बधाई।

कितने निर्धन "भाई" "बहन" "माता-पिता" इसी दशा से गुज़र रहे हैं, और कितनी बार उनकी ज़रूरत जानते हुए भी कोई उनकी सहायता के लिए आगे नहीं बढ़ता। ऐसी ही हृदयविदारक समस्या पर मैंने यहाँ ओ बी ओ पर एक रचना पोस्ट की थी " छाँह में छिपना चाहता हूँ", जिसमें... एक पिता के पास बच्चे के कफ़न के लिए सफ़ेद चादर के लिए पैसे नहीं थे, और इसलिए वह सड़क पर खड़ा केले बेच रहा था ... यह असली घटना है हरदोई के पास एक ग्राम में।

अच्छी लघु कथा के लिए पुन: बधाई।

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